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चिन्तन के विकास में जैन आचार्यों का योग
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और श्लेष्म की शांति के लिए मधु पथ्य है । यह बात चाहे ब्रह्मा कहे, या ब्रह्मा का पुत्र, इसमें वक्ता का क्या अन्तर आएगा ? वक्ता के कारण द्रव्य की शक्ति में कोई अन्तर नहीं आता, इसलिए आप मात्सर्य को छोड़ मध्यस्थ दृष्टि का अवलंबन लें ।
प्राचीनता और नवीनता के प्रश्न पर महाकवि कालिदास और वाग्भट्ट का चिन्तन बहुत महत्त्वपूर्ण है । किन्तु इस विषय में आचार्य सिद्धसेन की लेखनी ने जो चमत्कार दिखाया है, वह प्राचीन भारतीय साहित्य में दुर्लभ है। उनका चिंतन है कि कोई व्यक्ति नया नहीं है और कोई पुराना नहीं है । जिसे हम पुराना मानते हैं, एक दिन वह भो नया था और जिसे हम नया मानते हैं, वह भी एक दिन पुराना हो जाएगा। आज जो जीवित है, वह मरने के बाद नयी पीढ़ी के लिए पुरानों की सूची में आ जाता है । पुराणता अवस्थित नहीं है, इसलिए पुरातन व्यक्ति की कही हुई बात पर भी बिना परीक्षा किए कौन विश्वास करेगा ?
आचार्य सिद्धसेन ने भगवान् महावीर की अभय की भावना को आत्मसात् कर लिया था । वे सत्य के प्रकाशन में सकुचाते नहीं थे । मुक्त - समीक्षा और प्राचीनता की युक्तिसंगत आलोचना के कारण उनका विरोध बढ़ रहा था । वे इस स्थिति से परिचित थे, किन्तु स्वतंत्रता व्यक्ति इस प्रकार की स्थिति से घबराता नहीं । उनका अभय स्वर इस भाषा में प्रस्फुटित हुआ
'पुराने पुरुषों ने जो व्यवस्था निश्चित की है, क्या वह चिंतन करने पर उसी रूप में सिद्ध होगी ? नहीं भी हो सकती है । उस स्थिति में मृत पुरखों की जमी हुई प्रतिष्ठा के कारण उस असिद्ध व्यवस्था का समर्थन करने के लिए मेरा जन्म नहीं हुआ है । इस व्यवहार से यदि मेरे विद्वेषी बढ़ते हैं तो भले ही बढ़ें ।'
व्यवस्थाएं या मर्यादाएं अनेक प्रकार की हैं और वे परस्पर विरोधी भी हैं । उनका शीघ्र ही निर्णय कैसे किया जा सकता है ? फिर भी यह मर्यादा है, यह नहीं है, इस प्रकार का एक पक्षीय निर्णय करना पुरातन के प्रेम से जड़ बने हुए व्यक्ति के लिए ही उचित हो सकता है, किसी परीक्षक के लिए नहीं ।'
'पुरातन प्रेम के कारण आलसी बना हुआ व्यक्ति जैसे-जैसे यथार्थ का निश्चय नहीं कर पाता, वैसे-वैसे वह निश्चय किए हुए
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