Book Title: Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 144
________________ चिन्तन के विकास में जैन आचार्यों का योग १३६. के मुख्य प्रवक्ता थे । भगवान् महावीर ने मोक्ष के चार मार्ग बतलाए - ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप । इनकी व्याख्या अनेकों आचार्यों ने की । वे सब व्याख्याएं व्यवहारनय पर आश्रित हैं । व्यवहारनय स्थूल और बुद्धिगम्य दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है । निश्चयनय का दृष्टिकोण सूक्ष्म और आत्मगम्य है । अध्यात्म का प्रवक्ता निश्चयनय का आलम्बन लेकर चलता है । आचार्य कुन्दकुन्द की अनेक व्याख्याएं और स्थापनाएं निश्चयनय पर अवलम्बित हैं । उन्होंने निश्चयनय के आधार पर कहा - 'आत्मा को जानना ही सम्यक् ज्ञान है, उसे देखना ही सम्यक् दर्शन है और उसमें रमण करना ही सम्यक् चारित्र है ।' उन्होंने व्यवहारनय का अस्वीकार नहीं किया और सामाजिक जीवन में उसका अस्वीकार किया भी नहीं जा सकता । तत्त्व के गहन पर्यायों तक हर आदमी नहीं पहुंच सकता। उसकी पहुंच तत्त्व के कुछेक स्थूल पर्यायों तक होती है । उसे वास्तविक सत्य तक ले जाने के लिए स्थूल सत्य का आलम्बन लेना आवश्यक होता है । आचार्य कुन्दकुन्द ने इस तथ्य को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया । एक व्यक्ति सीमांत के प्रदेश में गया । उसे एक आदमी मिला । उसने आगन्तुक को नमस्कार किया । आगन्तुक ने उसे स्वस्ति कहकर आशीर्वाद दिया । सीमान्तवासी उसे समझ नहीं सका । आगन्तुक ने सीमान्त प्रदेश की भाषा में आशीर्वाद दिया, तब वह बहुत प्रसन्न हुआ और उसने स्वस्ति का अर्थ भी जान लिया । जैसे सीमान्तवासी को सीमान्त की भाषा के बिना समझाना शक्य नहीं है, वैसे ही व्यवहारदृष्टि वाले व्यक्ति को व्यवहारनय के माध्यम के बिना वास्तविक सत्य समझाना शक्य नहीं है । व्यवहार की भूमिका पर जीने वाले धार्मिक लोग स्वर्ग के प्रलोभन और नर्क के भय से ही धर्म की बात सोचते हैं । उनकी दृष्टि पुण्य और पाप तक पहुंचती है । परमार्थदर्शी की दृष्टि में आत्मा ही सब कुछ है । आत्मा की भूमिका में पुण्य का कोई महत्त्व नहीं है । व्यवहारदृष्टि के लोग कहते हैं कि अशुभ कर्म कुशील हैं और शुभकर्म सुशील हैं । किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द का तर्क है कि शुभ कार्य संसार में प्रवेश कराता है, फिर वह सुशील कैसे ? जैसे लोहे की बेड़ी मनुष्य को बांधती है, वैसे ही सोने की बेड़ी भी For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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