Book Title: Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 143
________________ १३८ जैन परम्परा का इतिहास विकास हुआ होता।' साधना करने वाले सब व्यक्तियों का अध्यवसाय समान नहीं होता। उनकी क्षमता भी समान नहीं होती । गति में तारतम्य होता है। किंतु लक्ष्य समान होता है। कौन कितना आगे बढ़ सके, यह उस पर निर्भर है । पहले ही हम उसे अवरोध पट्ट दिखा दें कि तुम इससे आगे नहीं जा सकते तो उसके चरण प्रारम्भ में ही ठिठक जाते हैं। आचार्य हेमचंद्र ने कलिकाल के निमित्त से निर्मित किए गए अवरोधों को तोड़ने के लिए महत्त्वपूर्ण चिंतन प्रस्तुत किया। उन्होंने लिखा कि--- 'सुषमाकाल में साधक लम्बी तपस्या के बाद फल प्राप्त करते थे। यह कलिकाल ही ऐसा है, जिसमें साधक अल्पकालीन तपस्या से ही फल प्राप्त कर लेता है। फिर कलिकाल क्या बुरा है ? हमें कृतयुग से क्या प्रयोजन ?' 'प्रभो ! सुषमा [कृतयुग] की अपेक्षा दुषमा [कलिकाल] में तुम्हारी कृपा अधिक फलवती होती है। कल्पतरु मेरु की अपेक्षा मरुभूमि में अधिक श्लाघनीय होता है।' 'कल्याण-सिद्धि के लिए यह कलिकाल कसौटी है। अग्नि के बिना अगर की गंध प्रस्फुटित नहीं होती। 'मैं युग-युग तक संसार में भ्रमण कर चुका, किंतु तुम्हारा दर्शन नहीं मिला। मैं इस कलिकाल को नमस्कार करता हूं जिसमें तुम्हारे दर्शन मिले।' 'लोग कहते हैं कि कलिकाल में लोग बहुत उच्छृखल और दुष्ट होते हैं । क्या कृतयुग में ऐसे लोग नहीं थे ? यह सच है कि उस युग में भी ऐसे लोग थे । फिर हम कलिकाल पर व्यर्थ ही क्यों कुपित होते हैं ?' कुछ-कुछ आचार्यों ने कालहेतुक अवरोधों को समाप्त करने का प्रयत्न किया, किंतु वे सुस्थिर हो चुके थे। उनका उन्मूलन नहीं किया जा सका। अध्यात्म के उन्मेष भगवान् महावीर का दर्शन आत्मा का दर्शन है। उसके आदि, मध्य और अंत में सर्वत्र आत्मा ही आत्मा है। उसकी गहराइयों में जाने का प्रयत्न अध्यात्म है। इस बिंदु को आचार्य कुन्दकुन्द ने सर्वाधिक विकसित किया। वे जैन परम्परा में अध्यात्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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