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जैन परम्परा का इतिहास साधन की शुद्धि का सिद्धान्त अब राजनीतिक चर्चा में भी उतर आया है।
आचार्य भिक्षु ने दो शताब्दी पूर्व कहा था-शुद्ध साध्य का साधन अशुद्ध नहीं हो सकता और शुद्ध साधन का साध्य अशुद्ध नहीं हो सकता। मोक्ष साध्य है और उसका साधन है संयम । वह संयम के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। जो व्यक्ति लड्डुओं के लिए तपस्या करते हैं, वे कभी भी धर्मी नहीं हैं और इस उद्देश्य से तपस्या करने वालों को जो लड्डू खिलाते हैं, वे भी धर्मी नहीं हैं ।
जो साधन अच्छे नहीं होते वे साध्य का ही अंत कर देते हैंइसका उदाहरण आचार्य भिक्षु ने प्रस्तुत किया है। देव, गुरु और धर्म की उपासना धार्मिक का साध्य है। उपासना का साधन है अहिंसा । किंतु जो व्यक्ति हिंसा के द्वारा उनकी उपासना करता है, वह उपासना के मार्ग से भटक जाता है। जो हिंसा के द्वारा धर्म करना चाहता है, वह मिथ्यादृष्टि है । सम्यग्दृष्टि वह है जो धर्म के लिए हिंसा नहीं करता।
लोहू से लिपटा हुआ पीताम्बर लोहू से साफ नहीं होता। इसी प्रकार हिंसा से हिंसा का शोधन नहीं होता।
वर्तमान राजनीति में दो प्रकार की विचारधाराएं हैंसाम्यवादी और इतर साम्यवादी। जनता का जीवन-स्तर ऊंचा करना दोनों का लक्ष्य है पर पद्धतियां दोनों की भिन्न हैं।
साम्यवादी विचारधारा यह है- लक्ष्य की पूर्ति के लिए साधन की शुद्धि का विचार आवश्यक नहीं है। लक्ष्य यदि अच्छा है तो उसकी पूर्ति के लिए बुरे साधनों का प्रयोग भी आवश्यक हो तो वह करना चाहिए। एक बार थोड़ा अनिष्ट होता है और आगे इष्ट अधिक होता है । गांधीवादी विचार यह है कि जितना महत्त्व लक्ष्य का है उतना ही साधन का । लक्ष्य की पूर्ति येनकेन-प्रकारेण नहीं, किंतु उचित साधनों के द्वारा ही करनी चाहिए।
आचार्य भिक्ष के समय में भी साधन-शुद्धि के विचार को महत्त्व न देने वाली मान्यता थी। उसके अनुयायी कहते थेप्रयोजनवश धर्म के लिए भी हिंसा का अवलम्बन लिया जा सकता है। एक बार थोड़ी हिंसा होती है, किंतु आगे उससे बहुत धर्म होता है।
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