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चिन्तन के विकास में जैन आचार्यों का योग
१४६ _ आचार्य भिक्षु ने इसे मान्यता नहीं दी। उन्होंने कहा-बाद में धर्म या पाप होगा, इससे वर्तमान अच्छा या बुरा नहीं बनता। कार्य की कसौटी वर्तमान ही है ।
जिसके मन में दया का भाव उठा, उसके लिए दया का साधन है उपदेश । और जिसके मन में दया का भाव उत्पन्न करना है उसके लिए दया का साधन है हृदय-परिवर्तन । आत्मवादी का साध्य है मोक्ष -- आत्मा का पूर्ण विकास। उसके साधन हैं-सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र । अज्ञानी को ज्ञानी, मिथ्यादष्टि को सम्यक्दृष्टि और असंयमी को संयमी बनाना साध्य के अनुकूल
यह साध्य और साधन की संगति है। इनकी विसंगति तब होती है जब या तो साध्य अनात्मिक होता है या साधन । हृदय-परिवर्तन
मनुष्य की प्रवृत्ति के निमित्त तीन हैं-शक्ति, प्रभाव और सहजवृत्ति । सत्ता से शक्ति, सम्बन्ध से प्रभाव और हृदय-परिवर्तन से सहजवृत्ति का उदय होता है। शक्ति राज्य-संस्था का आधार है । प्रभाव समाज-संस्था या भौतिक जीवन का आधार है । सहजवृत्ति हृदय की पवित्रता का आधार है। शक्ति से प्रेरित हो मनुष्य को कार्य करना पड़ता है। प्रभाव से प्रेरित होकर मनुष्य सोचता है कि वह कार्य मुझे करना चाहिए। सहजवृत्ति से प्रेरित हो मनुष्य सोचता है कि यह कार्य करना मेरा धर्म है । सब लोग अहिंसक या मोक्षार्थी हो जाएं यह कल्पना ठीक है, पर सबको अहिंसक या मोक्षार्थी बना देंगे, यह शक्ति का सूत्र है। हमें यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होगी कि शक्ति के धागे में सबको एक साथ बांधने की झमता है पर उससे व्यक्ति के स्वतन्त्र मनोभाव का विकास नहीं होता। वह व्यक्ति-व्यक्ति की चारित्रिक अयोग्यता का निदर्शन है। आपसी सम्बन्धों से प्रभावित होकर जो अहिंसक बनता है, वह अहिंसा की उपासना नहीं करता। वह सम्बन्धों को बनाए रखने की प्रक्रिया है। प्रभाव मनुष्यों को बांधता है पर वह मानसिक अनुभूति की स्थूल रेखा है, इसलिए उसमें स्थायित्व नहीं होता।
मोहाणुओं तथा पदार्थों से प्रभावित व्यक्ति जो कार्य करते हैं उसके लिए हम अहिंसा की कल्पना ही नहीं कर सकते। शक्ति
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