Book Title: Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 152
________________ चिन्तन के विकास में जैन आचार्यों का योग १४७ सकता । कुछ सम्प्रदाय धर्म को जाति का रूप दे रहे थे। यह संगठन के लिए उचित हो सकता है, किन्तु धर्म के लिए इसकी श्रेष्ठता नहीं साधी जा सकती। जो धर्म जाति के रूप में संगठित है, उसमें साम्प्रदायिकता, कट्टरता और आग्रह अधिक है, धर्म कम। धर्म आत्मा की पवित्र अनुभूति है, उसे व्यवस्था के स्तर पर विकसित नहीं किया जा सकता। सोमदेवसूरि ने समन्वय की भाषा में कहा-गृहस्थ के लिए दो धर्म होते हैं- लौकिक और पारलौकिक । लौकिक धर्म लोकाश्रित है और पारलौकिक धर्म आगमाश्रित । जैनों के लिए वह समग्र लौकिक व्यवस्था प्रमाण है, जिसे मान्य करने पर सम्यक्त्व की हानि और व्रत दूषित न हो। इस समन्वय की धारा के दो फलित हुए–सामाजिक सामंजस्य और सैद्धांतिक शैथिल्य । शैव-सम्मत समाज-व्यवस्था को मान लेने पर सामाजिक एकता का अनुभव हुआ। उस स्थिति में जैनों पर होने वाले प्रहार कम हो गए। उन्हें अपनी परम्परा को व्यवस्थित रखने का अवसर मिल गया। साथ-साथ कुछ मूल्य भी चुकाना पड़ा। जैन मुनि अब तक जातिवाद पर निरन्तर प्रहार कर रहे थे, किन्तु वैदिक समाज-व्यवस्था के साथ जुड़ जाने पर वर्णव्यवस्था और जाति-व्यवस्था को भी धीमे-धीमे मान्यता देनी पड़ी। जैन परम्परा के हाथ से एक बड़ा क्रांतिसूत्र छूट गया-कल तक वे जिसका खण्डन करते थे, आज उसका समर्थन करने लग गए। साधन-शुद्धि आध्यात्मिक जगत् का साध्य है-आत्मा की पवित्रता और उसका साधन भी वही है । आत्मा की अपवित्रता कभी भी आत्मिक पवित्रता का साधन नहीं बन सकती। पहले क्षण का साधन दूसरे क्षण में साध्य बन जाता है और वही उसके अगले चरण का साधन बन जाता है। पहले क्षण का जो साध्य है, वह अगले क्षण के लिए साधन है। पवित्रता ही साध्य है और वही साधन । साध्य और साधन की एकता के विचार को आचार्य भिक्षु ने जो सैद्धांतिक रूप दिया, वह उनसे पहले नहीं मिलता। शुद्ध साध्य के लिए साधन भी शद्ध होने चाहिए, इस विचार को उनकी भाषा में जो अभिव्यक्ति मिली, वह उनसे पहले नहीं मिली। साध्य और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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