Book Title: Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 148
________________ १४३ चिन्तन के विकास में जैन आचार्यों का योग दृष्टिकोण अध्यात्म के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण उन्मेष है। व्यवहार जगत् नाम और रूप से आक्रान्त होता है। अध्यात्म में गुण की ही प्रतिष्ठा होती है। आचार्य हेमचंद्र ने सोमनाथ के मंदिर में शिवलिंग के समक्ष चिंतन की मुक्तधारा प्रवाहित की। उससे उनके प्रतिस्पर्धी भी नतमस्तक हो गए। उन्होंने कहा, 'भवबोज के अंकुर को पैदा करने वाले राग और द्वेष क्षोण हो चुके हैं, उस वीतराग आत्मा को मैं नमस्कार करता हूं, फिर उसका नाम ब्रह्मा, विष्णु, महादेव या जिन कुछ भी हो।' वीतरागता और अनेकान्त, ये दोनों अध्यात्म के प्रकाशस्तम्भ हैं । वीतरागता आत्मा का शुद्ध रूप है । उसकी अनुभूति का क्षण ही आत्मोपलब्धि का क्षण है । अनेकांत सत्य के साक्षात्कार का सशक्त माध्यम है। आचार्य हेमचंद्र ने अपने संपूर्ण आत्मविश्वास के साथ कहा - 'सब प्रतिपक्ष मेरे साक्षी हैं । मैं उनके समक्ष यह उदार घोषणा करता हूं कि वीतराग से अधिक कोई देव नहीं है और अनेकान्त के अतिरिक्त कोई नय नहीं है।' ___ अध्यात्म के कल्पवृक्ष की शाखाएं तीन हैं-सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यग चारित्र । ज्ञान और दर्शन का समन्वित रूप दर्शन है। चारित्र धर्म है। दर्शन और धर्म-ये दोनों शाखाएं अध्यात्म से अविच्छिन्न रहती हैं तब सत्य को अभिव्यक्ति मिलती है और वर्तमान जीवन में प्रकाश को रश्मियां फटती हैं। जब दर्शन और धर्म अध्यात्म से विच्छिन्न हो जाते हैं तब सत्य आवत हो जाता है और वर्तमान अंधकार से भर जाता है । पौराणिक काल में धर्म की धारणाएं बदल गईं। उसका मुख्य रूप पारलौकिक हो गया। वह वर्तमान से कटकर भविष्य से जुड़ गया। जन-मानस में यह धारणा स्थिर हो गई कि धर्म से परलोक सुधरता है, स्वर्ग मिलता है, मोक्ष मिलता है। इस धारणा ने जनता को धर्म की वार्तमानिक उपलब्धियों से वंचित कर भविष्य के सुनहले स्वप्नों के जगत में प्रतिष्ठित कर दिया। भगवान महावीर ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था'धर्म का फल वर्तमान काल में ही होता है । जिस क्षण में उसका आचरण किया जाता है, उसी क्षण में कर्म का निरोध या क्षय होता है। धर्म का मुख्य फल यही है।' जिसके कर्म का निरोध या क्षय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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