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चिन्तन के विकास में जैन आचार्यों का योग
कहीं भी सत्य के कण दिखाई देते हैं, वे सब आत्मा की ज्योति के ही स्फुलिंग हैं । आचार्य हेमचन्द्र ने आचार्य सिद्धसेन के अभिमत को सहज भाषा में प्रस्तुत किया है जिस किसी समय में, जिस किसी रूप में और जिस किसी नाम से, जिस किसी रूप में आप प्रकट हों, यदि आप वीतराग हैं तो आप मेरे लिए एक ही हैं। मैं वीतराग के प्रति प्रणत हं, देश, काल तथा नाम और रूप के प्रति प्रणत नहीं
यथार्थवाद
__जैन धर्म यथार्थवादी है। यथार्थवाद में सत्य का स्वीकार श्रद्धा से नहीं होता। न व्यक्ति के प्रति श्रद्धा और न सिद्धान्त के प्रति श्रद्धा। दोनों की परीक्षा की जाती है । आचार्य हेमचन्द्र ने इस वास्तविकता को बहुत ही स्पष्ट शब्दों में उजागर किया है। उन्होंने लिखा है- 'भगवन् ! श्रद्धा से आपके प्रति हमारा पक्षपात नहीं है । अन्य दार्शनिकों के प्रति द्वेष के कारण हमारी अरुचि नहीं है। हमने आप्तत्व की परीक्षा की है । उस परीक्षा में आप खरे उतरते हैं । इसलिए हमने आपका अनुगमन किया है।
आचार्य हरिभद्र ने इस सत्य को निरपेक्ष शब्दो में अभिव्यक्त किया है। वे कहते हैं... 'महावीर के प्रति मेरा कोई पक्षपात नहीं है
और कपिल आदि दार्शनिकों के प्रति मेरा कोई द्वेष नहीं है । मैं इस विचार का व्यक्ति हूं कि जिसका विचार युक्ति-युक्त हो, उसका अनुगमन करना चाहिए ।
___ इस स्पष्ट विचार का आधार यथार्थवाद है। पौराणिक काल में अपने इष्टदेव का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करने की होड़-सी लगी थी। फलतः जितने भी महापुरुष हुए उनका मानवीय रूप देवी चमत्कारों से आवत हो गया। यह स्थिति यथार्थवाद के अनुकल नहीं थी। आचार्य समन्तभद्र ने इस पर तीव्र प्रहार किया। उन्होंने इन चमत्कारों को महानता का मानदण्ड मानने से अपनी असहमति प्रकट की। उन्होंने महावीर को चमत्कारों के आवरण से निकालकर यथार्थवाद के आलोक में देखने का प्रयत्न किया। उनका प्रसिद्ध श्लोक है
देवागमनभोयान-चामरादिविभूतयः। मायाविष्वपि दृश्यन्ते, नातस्त्वमसि नो महान् ॥
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