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ह्रास के मुख्य हेतु ये हैं १. आंतरिक पवित्रता और शक्ति की कमी,
बाह्य कर्मकांडों
की प्रचुरता ।
२. व्यक्तिवादी मनोवृत्ति - दूसरों की हानि से मुझे क्या ? मैं दूसरों के लिए क्यों कर्म बांधू ? इस प्रकार के ऐकांतिक निवृत्तिवादी चिंतन ने परस्परता के बंधन में शिथिलता ला दी ।
दक्षिण भारत में जैन-धर्म के ह्रास के मुख्य तीन कारण हैं :१. जैन जागृति करने वाले प्रभावशाली आचार्यों के कार्यकाल में बहुत बड़ा व्यवधान ।
राजनीति और धर्मनीति को
२. ऐसे नेतृत्व का अभाव जो साथ-साथ लेकर चल सके ।
३. अन्य धर्मों के बढ़ते हुए प्रभाव की उपेक्षा और अपने आपको एकांततः आध्यात्मिक बनाए रखने की प्रवृत्ति ।
दक्षिण के मुख्य दो प्रांतों में ह्रास के अन्यान्य कारण भी रहे
हैं :
१. तमिलनाडु में ह्रास के कारण
जैन परम्परा का इतिहास
१. शैव नायनार और वैष्णव अल्वारों का उदय ।
२. उनके द्वारा जातिवाद का बहिष्कार कर अपने धर्म-संघ में नीची जाति वालों का प्रवेश ।
३. राजधर्म को प्रभावित कर राजाओं को अपने मत के प्रति आकृष्ट करना ।
४. जैन स्तुतियों का अनुकरण कर शैव स्तुतियों का निर्माण
करना ।
२. कर्नाटक में ह्रास के कारण
१. राष्ट्रकूट और गंगवंशीय राजाओं का अंत |
२. वीर शैवमत के उदयकाल में जैन आचार्यों की उपेक्षा और उनके प्रभाव को रोक पाने की अक्षमता ।
३. बसवेश्वर द्वारा प्ररूपित 'लिंगायत' धर्म के बढ़ते चरण को रोक न पाना ।
४. अनेक राजाओं का शैव मत में दीक्षित हो जाना । विकास और ह्रास कालचक्र के अनिवार्य नियम हैं । इस विषय में कोई भी वस्तु केवल विकास या ह्रास की रेखा पर अवस्थित नहीं
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