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जैन परम्परा का इतिहास
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थे । आर्यरक्षित के शिष्य दुर्बलिका पुष्यमित्र ने नौ पूर्वो का अध्ययन किया किन्तु अनभ्यास के कारण वे नवें पूर्व को भूल गए । विस्मृति का यह क्रम आगे बढ़ता गया ।
आगम- संकलन का दूसरा प्रयत्न वीर निर्वाण ८२७ और ८४० के बीच हुआ । आचार्य स्कन्दिल के नेतृत्व में आगम लिखे गए। यह कार्य मथुरा में हुआ, इसलिए इसे माथुरी - वाचना कहा जाता है । इसी समय वल्लभी में आचार्य नागार्जुन के नेतृत्व में आगम संकलित हुए। उसे वल्लभी वाचना या नागार्जुनीय-वाचना कहा जाता है ।
माथुरी वाचना के अनुयायियों के अनुसार वीर- निर्वाण के ६८० वर्ष पश्चात् तथा वल्लभी-वाचना के अनुयायियों के अनुसार वीर - निर्वाण के ९९३ वर्ष पश्चात् देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में श्रमण-संघ मिला । द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के कारण बहुत सारे बहुश्रुत मुनि काल-कवलित हो चुके थे । अन्य मुनियों की संख्या भी कम हो गई थी । श्रुत की अवस्था चिन्तनीय थी । दुर्भिक्ष-जनित कठिनाइयों के कारण प्रासुक भिक्षाजीवी साधुओं की स्थिति बड़ी विचारणीय थी । क्रमशः श्रुत की विस्मृति हो रही थी ।
देवर्द्धिगणी ने अवशिष्ट बहुश्रुत मुनियों तथा श्रमण-संघ को एकत्रित किया | उन्हें जो श्रुतकंठस्थ था, वह उनसे सुना और लिपिबद्ध कर लिया । आगमों के आलापक न्यूनाधिक और छिन्नभिन्न मिले । उन्होंने उन सबका अपनी मति से संकलन और संपादन कर पुस्तकारूढ़ कर लिया। इसके पश्चात् फिर कोई सर्वमान्य वाचना नहीं हुई । वीर - निर्वाण की दसवीं शताब्दी के बाद पूर्वज्ञान की परम्परा विच्छिन्न हो गई ।
आगम-विच्छेद का क्रम
भद्रबाहु का स्वर्गवास वीर- निर्वाण के १७० वर्ष पश्चात् हुआ । अर्थ की दृष्टि से अन्तिम चार पूर्वों का विच्छेद इसी समय हुआ । दिगम्बर-परम्परा के अनुसार यह वीर - निर्वाण के १६२ वर्ष पश्चात् हुआ ।
शाब्दी - दृष्टि से अन्तिम चार पूर्व स्थूलभद्र की मृत्यु के समय वीर- निर्वाण के २१६ वर्ष पश्चात् विच्छिन्न हुए । इनके बाद पूर्वी की परम्परा आर्यवज्र तक चली। उनका स्वर्गवास वीर
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