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जैन परम्परा का इतिहास
बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अशोक ने जो काम किया उससे अधिक संप्रति ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए किया ।
सम्राट् सम्प्रति को 'परम - आर्हत' कहा गया है। उन्होंने अनार्य-देशों में श्रमणों का विहार करवाया था । भगवान् महावीर के काल में विहार के लिए जो आर्य-क्षेत्र की सीमा थी, वह सम्प्रति के काल में बहुत विस्तृत हो गई थी । साढ़े पच्चीस देशों का आर्यक्षेत्र मानने की बात भी सम्भवतः सम्प्रति के बाद ही स्थिर हुई होगी ।
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सम्राट् सम्प्रति को भारत के तीन खण्डों का अधिपति कहा गया है । जयचंद्र विद्यालंकार ने लिखा है- " सम्प्रति को उज्जैन में जैन आचार्य सुहस्ती ने अपने धर्म की दीक्षा दी । उसके बाद सम्प्रति ने जैन-धर्म के लिए वही काम किया जो अशोक ने बौद्ध धर्म ने लिए किया था । चाहे चन्द्रगुप्त के और चाहे सम्प्रति के समय में जैन-धर्म की बुनियाद तामिल भारत के नए राज्यों में भी जा जमी, इसमें संदेह नहीं । उत्तर-पश्चिम के अनार्य देशों में भी सम्प्रति के समय जैन - प्रचारक भेजे और वहां जैन साधुओं के लिए अनेक विहार स्थापित किए गए । अशोक और सम्प्रति दोनों के कार्य से आर्य संस्कृति एक विश्व शक्ति बन गई और आर्यावर्त का प्रभाव भारतवर्ष की सीमाओं के बाहर तक पहुंच गया । अशोक की तरह उसके पुत्र ने भी अनेक इमारतें बनवाईं। राजपूताना की कई जैनरचनाएं उसके समय की कही जाती हैं ।" कुछ विद्वानों का अभिमत है कि जो शिलालेख अशोक के नाम से प्रसिद्ध हैं, वे सम्राट् सम्प्रति लिखवाए थे। सुप्रसिद्ध ज्योतिर्विद श्री सूर्यनारायण व्यास ने एक बहुत खोजपूर्ण लेख द्वारा यह प्रमाणित किया है कि सम्राट् अशोक के नाम के लेख सम्राट् सम्प्रति के हैं ।
सम्राट् अशोक ने शिला लेख लिखवाए हों और उन्हीं के पौत्र तथा उन्हीं के समान धर्म प्रचार-प्रेमी सम्राट् सम्प्रति ने शिला लेख न लिखवाए हों, यह कल्पना नहीं की जा सकती। एक बार फिर सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन करने की आवश्यकता है कि अशोक के नाम से प्रसिद्ध शिलालेखों में कितने अशोक के हैं और कितने संप्रति के ?
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