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जैन परम्परा का इतिहास
के अध्ययन से जैन-मत के प्रचार का ज्ञान होता है । प्रतिमाओं की आधार - शिला पर खुदा लेख यह प्रमाणित करता है कि राजाओं के अतिरिक्त साधारण जनता भी जैन - मत में विश्वास रखती थी । मालवा अनेक शताब्दियों तक जैन-धर्म का प्रमुख प्रचार क्षेत्र था । व्यवहार भाष्य में बताया है कि अन्य तीथिकों के साथ वाद-विवाद मालव आदि क्षेत्रों में करना चाहिए । इससे जाना जाता है कि प्रवन्तीपति चण्डप्रद्योत तथा विशेषतः सम्राट् सम्प्रति से लेकर भाष्य रचनाकाल तक वहां जैन-धर्म प्रभावशाली था ।
सौराष्ट्र-गुजरात
सौराष्ट्र जैन-धर्म का प्रमुख केन्द्र था । भगवान् अरिष्टनेमि से वहां जैन-परम्परा चल रही थी । सम्राट् सम्प्रति के राज्यकाल में वहां जैन-धर्म को अधिक बल मिला था । सूत्रकृतांग चूर्णि में सौराष्ट्र-वासी श्रावक का उल्लेख मगधवासी श्रावक की तुलना में किया गया है । जैन साहित्य में 'सौराष्ट्र' का प्राचीन नाम 'सुराष्ट्र' मिलता है ।
वल्लभी में श्वेताम्बर जैनों की दो-आगम-वाचनाएं हुई थीं । ईसा की चौथी शताब्दी में जब आचार्य स्कन्दिल के नेतृत्व में मथुरा में आगम-वाचना हो रही थी, उसी समय आचार्य नागार्जुन के नेतृत्व में वह वल्लभी में हो रही थी।
ईसा की पांचवी शताब्दी [ ४५४ ] में फिर वहीं आगमवाचना के लिए एक परिषद् आयोजित हुई । उसका नेतृत्व देवद्विगणि क्षमाश्रमण ने किया । उन्होंने आचार्य स्कन्दिल की ' माथुरीवाचना' को मुख्यता दी और नागार्जुन की वाचनान्तर के रूप में स्वीकृत किया ।
वल्लभी - वाचना' को
गुजरात के चालुक्य, राष्ट्रकूट, चावड, सोलंकी आदि राजवंशी भी जैन-धर्म के अनुयायी या समर्थक थे ।
बम्बई - महाराष्ट्र
सम्राट् सम्प्रति से पूर्व जैनों की दृष्टि में महाराष्ट्र अनार्यदेश की गणना में था । उसके राजकाल में जैन साधु वहां विहार करने लगे । उत्तरवर्ती - काल में वह जैनों का प्रमुख विहार क्षेत्र बन गया था । जैन आगमों की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत से बहुत प्रभावित है । कुछ विद्वानों ने प्राकृत भाषा के रूप का 'जैन महाराष्ट्री
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