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जैन साहित्य
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निर्वाण के ५७१ [विक्रम संवत् १०१] वर्ष पश्चात् हुआ । उसी समय दसवां पूर्व विच्छिन्न हुआ। नवां पूर्व दुर्बलिका पुष्यमित्र की मृत्यु के साथ --- वीर-निर्वाण ६०४ वर्ष [विक्रम संवत् १३४] में लुप्त हुआ।
पूर्वज्ञान का विच्छेद वीर-निर्वाण के हजार वर्ष पश्चात् हुआ।
दिगम्बर-मान्यता के अनुसार वीर-निर्वाण के ६२ वर्ष तक केवलज्ञान रहा। अंतिम केवलो जम्बूस्वामी हुए। उनके पश्चात् १०० वर्ष तक चौदह पूर्वो का ज्ञान रहा । अन्तिम चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु हुए। उनके पश्चात् १८३ वर्ष तक दशपूर्व रहे। धर्मसेन अन्तिम दशपूर्वी थे। उनके पश्चात् ग्यारह अंगों की परम्परा २२० वर्ष तक चली। उनके अंतिम अध्येता ध्रुवसेन हए। उनके पश्चात् एक अंग [आचारांग] का अध्ययन ११८ वर्ष तक चला। इसके अंतिम अधिकारी लोहार्य हुए। वीर-निर्वाण ६८३ [विक्रम सम्वत् २१३] के पश्चात् आगम-साहित्य सर्वथा लुप्त हो गया।
दृष्टिवाद अंग के पूर्वगत-ग्रंथ का कुछ अंश ईस्वी प्रारंभिक शताब्दी में श्रीधर सेनाचार्य को ज्ञात था। उन्होंने देखा कि यदि वह शेषांश भी लिपिबद्ध नहीं किया जाएगा तो जिनवाणी का सर्वथा अभाव हो जाएगा। फलतः उन्होंने श्रीपुष्पदंत और श्रीभूतबलि सदृश मेधावी ऋषियों को बुलाकर गिरनार की चन्द्र गुफा में उसे लिपिबद्ध करा दिया। उन दोनों ऋषिवरों ने उस लिपिबद्ध श्रुतज्ञान को ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन सर्व संघ के समक्ष उपस्थित किया था । वह पवित्र दिन 'श्रुत पंचमी' के नाम से प्रसिद्ध है और साहित्योद्धार का प्रेरक कारण बन रहा है।
केवलज्ञान के लोप की मान्यता में दोनों सम्प्रदाय एकमत हैं। चार पूर्वो का लोप भद्रबाहु के पश्चात् हुआ इसमें ऐक्य है। केवल काल-दष्टि से आठ वर्ष का अंतर है। श्वेताम्बर-मान्यता के अनुसार उनका लोप वीर-निर्वाण के १७० वर्ष पश्चात् हुआ और दिगम्बरमान्यता के अनुसार १६२ वर्ष पश्चात् । यहां तक दोनों परम्पराएं आस-पास चलती हैं। इसके पश्चात् उनमें दूरी बढ़ती चली जाती है । दसवें पूर्व के लोप की मान्यता में दोनों में काल का बड़ा अंतर है। श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार दशपूर्वी वीर-निर्वाण से ५८४ वर्ष तक हुए और दिगम्बर-परम्परा के अनुसार २४५ वर्ष तक।
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