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जैन परम्परा का इतिहास राजस्थानी भाषाओं का स्रोत प्राकृत और अपभ्रंश है। काल परिवर्तन के साथ-साथ दूसरी भाषाओं का सम्मिश्रण हुआ है।
राजस्थानी साहित्य तीन शैलियों में लिखा गया है-१. जैन शैली, २. चारणी शैली, ३. लौकिक शैली। जैन-शैली के लेखक जैन-साधु और यति अथवा उनसे सम्बन्ध रखने वाले लोग हैं। इस में प्राचीनता की झलक मिलती है। अनेक प्राचीन शब्द और मुहावरे इसमें आगे तक चले आये हैं।
जैनों का संबंध गुजरात के साथ विशेष रहा है । अतः जैनशैली में गुजरात का प्रभाव भी दष्टिगोचर होता है। चारणी शैली के लेखक प्रधानतया चारण और गौण रूप में अन्यान्य लोग हैं। जैनों, ब्राह्मणों, राजपूतों, भाटों आदि ने भी इस शैली में रचना की है। इसमें भी प्राचीनता की पूट मिलती है पर वह जैन-शैली से भिन्न प्रकार की है। यद्यपि जैनों की अपभ्रंश रचनाओं में भी, विशेषकर युद्ध-वर्णन में, उसका मूल देखा जा सकता है। डिंगल वस्तुतः अपभ्रंश शैली का ही विकसित रूप है ।
तेरापंथ के आचार्य भिक्ष ने राजस्थानी साहित्य में एक नया स्रोत बहाया। अध्यात्म, अनुशासन, ब्रह्मचर्य, धार्मिक-समीक्षा, रूपक, लोक-कथा और अपनी अनुभूतियों से उसे व्यापकता की ओर ले चले। उन्होंने गद्य भी बहुत लिखा। उनकी सारी रचनाओं का परिमाण ३८,००० श्लोक के लगभग है। मारवाड़ी के ठेठ शब्दों में लिखना
और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करना उनकी अपनी विशेषता है। उनकी वाणी का स्रोत क्रान्ति और शान्ति-दोनों धाराओं में बहा
नव पदार्थ, विनीत-अविनीत, व्रताव्रत, अनुकंपा, शील की नववाड़ आदि उनकी प्रमुख रचनाएं हैं।
तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य महाकवि थे। उन्होंने अपने जीवन में लगभग साढ़े तीन लाख श्लोक-प्रमाण गद्यपद्य लिखे।
उनकी लेखनी में प्रतिभा का चमत्कार था। वे साहित्य और अध्यात्म के क्षेत्र में अनिरुद्ध गति से चले । उनकी सफलता का स्वतः प्रमाण उनकी अमर कृतियां हैं । उनका तत्त्व-ज्ञान प्रौढ़ था। श्रद्धा, तर्क और व्युत्पत्ति की त्रिवेणी में आज भी उनका हृदय बोल रहा
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