Book Title: Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 100
________________ जैन संस्कृति विद्वान् अलबर्ट स्वीजर ने अपने ग्रंथ 'इण्डियन थाट एण्ड इट्स डेवलप्मेन्ट' में इस तथ्य का बड़ी गम्भीरता से प्रतिपादन किया है। उनके मतानुसार-'यदि अहिंसा के उपदेश का आधार सचमुच ही करुणा होती तो यह समझना कठिन हो जाता कि उसमें न मारने, कष्ट न देने की ही सीमाएं कैसे बंध सकी और दूसरों को सहायता प्रदान करने की प्रेरणा से वह कैसे विलग रह सकी है ? यह दलील कि संन्यास की भावना मार्ग में बाधक बनती है, सत्य का मिथ्या आभास मात्र होगा। थोड़ी से थोड़ी करुणा भी इस संकुचित सीमा के प्रति विद्रोह कर देती; परंतु ऐसा कभी नहीं हुआ।' अतः अहिंसा का उपदेश करुणा की भावना से उत्पन्न न होकर संसार से पवित्र रहने की भावना पर आधृत है। यह मूलतः कार्य के आचरण से नहीं, अधिकतर पूर्ण बनने के आचरण से संबंधित है। यदि प्राचीन काल का धार्मिक भारतीय जीवित प्राणियों के साथ सम्पर्क में अकार्य के सिद्धान्त का दृढ़तापूर्वक अनुसरण करता था तो वह अपने लाभ के लिए, न कि दूसरे जीवों के प्रति करुणा के भाव से । उसके लिए हिंसा एक ऐसा कार्य था, जो वयं था। ___ यह सच है कि अहिंसा के उपदेश में सभी जीवों के समान स्वभाव को मान लिया गया है परन्तु इसका आविर्भाव करुणा से नहीं हुआ है। भारतीय संन्यास में अकर्म का साधारण सिद्धान्त ही इसका कारण है। 'अहिंसा स्वतन्त्र न होकर करुणा की भावना की अनुयायी होनी चाहिए। इस प्रकार उसे वास्तविकता से व्यावहारिक विवेचन के क्षेत्र में पदार्पण करना चाहिए। नैतिकता के प्रति शुद्ध भक्ति उसके अन्तर्गत वर्तमान मुसीबतों का सामना करने की तत्परता से प्रकट होती है।' 'पर फिर कहना पड़ता है कि भारतीय विचारधारा हिंसा न करना और किसी को क्षति न पहुंचाना, ऐसा ही कहती रही है, तभी वह शताब्दी गुजर जाने पर भी उच्च नैतिक विचार की अच्छी तरह रक्षा कर सकी जो इसके साथ सम्मिलित है।' 'जैन-धर्म में सर्वप्रथम भारतीय संन्यास ने आचारगत विशेषता प्राप्त की। जैन-धर्म मूल से ही नहीं मारने और कष्ट न देने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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