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भगवान् महावीर की उत्तरवर्ती परम्परा
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दोर्घकालीन परंपरा में विचारभेद होना अस्वाभाविक नहीं है । जैन परंपरा में भी ऐसा हुआ है । आमूलचूल विचार परिवर्तन होने पर कुछ जैन साधु निग्रन्थ शासन को छोड़कर अन्य शासन में जाकर वहां श्रमण बन गए। गोशालक भी उनमें एक था । ऐसे श्रमणों को निन्हव की संज्ञा नहीं दी गई । निन्हव उन्हीं साधुओं को कहा गया जिनका चालू परंपरा के साथ किसी एक विषय में मतभेद हो जाने के कारण, वे वर्तमान शासन से पृथक् हो गए, किन्तु किसी अन्य धर्म को स्वीकार नहीं किया । इसलिए उन्हें अन्यधर्मी न कहकर, जैन शासक के निन्हव [ किसो एक विषय का अपलाप करने वाले ] कहा गया है । इस प्रकार के निन्हव सात हुए हैं। इनमें से दो [ जमाली और तिष्यगुप्त ] भगवान् महावीर को कैवल्यप्राप्ति के बाद हुए हैं और शेष पांच निर्वाण के बाद । इन सब निन्हवों का अस्तित्व- काल भगवान् महावीर के कैवल्य प्राप्ति के चौदह वर्ष से निर्वाण के बाद ५८४ वर्ष तक रहा है। उनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है
१. बहुरतवाद
जमाली पहला निह्नव था । वह क्षत्रिय - पुत्र और भगवान् महावीर का दामाद था। मां-बाप के अगाध प्यार और अतुल ऐश्वर्य को ठुकरा कर वह निर्ग्रन्थ बना । भगवान् महावीर ने स्वयं उसे प्रव्रजित किया। पांच सौ व्यक्ति उसके साथ थे। मुनि जमाली अब आगे बढ़ने लगा । ज्ञान, दर्शन और चरित्र की आराधना में अपने आपको लगा दिया । सामायिक आदि ग्यारह अंग पढ़े । वह विचित्र तप कर्म - उपवास, बेला, तेला यावत् अर्द्ध मास और मास की तपस्या से आत्मा को भावित करते हुए विहार करने लगा ।
एक दिन की बात है, ज्ञानी और तपस्वी जमाली भगवान् महावीर के पास आया । वन्दना की, नमस्कार किया और बोला'भगवन् ! मैं आपकी आज्ञा पाकर पांच सौ निर्ग्रन्थों के साथ जनपद विहार करना चाहता हूं ।' भगवान् ने जमाली की बात सुन ली । उसे आदर नहीं दिय । । मौन रहे । जमाली ने दुबारा और तिबारा अपनी इच्छा को दोहराय । । भगवान् पहले की भांति मौन रहे । जमाली उठा । भगवान् को वन्दना की, नमस्कार किया । बहुशाला नामक चैत्य से निकाला । अपने साथी पांच सौ निर्ग्रन्थों को
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