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भगवान् महावीर की उत्तरवर्ती परम्परा
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पर चले गए । श्रमणों को संदेह हो गया कि कौन जाने कौन साधु है और कौन देव ? निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता । यह अव्यक्त मत कहलाया । आषाढ़ के कारण यह विचार चला, इसलिए इसके प्रवर्तक आचार्य आषाढ हैं- ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं, पर वास्तव में इसके प्रवर्तक आषाढ़ के शिष्य ही होने चाहिए । ये तीसरे निन्हव हुए ।
४. सामुच्छेदिकवाद
अश्वमित्र अपने आचार्य कौण्डिल के पास पूर्व-ज्ञान पढ़ रहे थे । पहले समय के नारक विच्छिन्न हो जायेंगे, दूसरे समय के भी विच्छिन्न हो जायेंगे, इस प्रकार सभी जीव विच्छिन्न हो जायेंगे. यह पर्यायवाद का प्रकरण चल रहा था । उन्होंने एकांत समुच्छेद का आग्रह किया । वे संघ से पृथक् कर दिए गए। उनका मत 'सामुच्छेदिकवाद' कहलाया। ये चौथे निन्हव हुए।
कवाद
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गंग मुनि आचार्य धनगुप्त के शिष्य थे । वे शरद् ऋतु में अपने आचार्य को वंदना करने जा रहे थे । मार्ग में उल्लुका नदी थी । उसे पार करते समय सिर को सूर्य की गरमी और पैरों को नदी की ठंडक का अनुभव हो रहा था। मुनि ने सोचा, आगम में कहा है - एक समय में दो क्रियाओं की अनुभूति नहीं होती । किन्तु मुझे एक साथ दो क्रियाओं की अनुभूति हो रही है । वे गुरु के पास पहुंचे और अपना अनुभव सुनाया। गुरु ने कहा- 'वास्तव में एक समय में एक ही क्रिया की अनुभूति होती है । मन का क्रम बहुत सूक्ष्म है, इसलिए हमें उसकी पृथकता का पता नहीं चलता ।' गुरु की बात उन्हें नहीं जंची। वे संघ से अलग होकर 'द्वैक्रियवाद' का प्रचार करने लगे । ये पांचवें निह्नव हुए।
६.
शिकवाद
छठे निह्नव रोहगुप्त [ षडुलूक ] हुए। वे अंतरंजिका के भूतगृह चैत्य में ठहरे हुए अपने आचार्य श्रीगुप्त को वन्दन करने जा रहे थे । वहां पोट्टशाल परिव्राजक अपनी विद्याओं के प्रदर्शन से लोगों को अचम्भे में डाल रहा था और दूसरे सभी धार्मिकों को वाद के लिए चुनौती दे रहा था । आचार्य ने रोहगुप्त को उसकी चुनौती स्वीकार करने का आदेश दिया और मयूरी, नकुली,
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