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जैन परम्परा का इतिहास
में चला। उनके पश्चात् आचार्य - परम्परा का भेद मिलता है । श्वेताम्बर पट्टावलि के अनुसार जम्बु के पश्चात् शय्यम्भव, यशोभद्र, सम्भूतविजय और भद्रबाहु हुए और दिगम्बर- मान्यता के अनुसार नन्दी, नन्दी मित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु हुए ।
जम्बू के पश्चात् कुछ समय तक दोनों परम्पराएं आचार्यों का भेद स्वीकार करती हैं और भद्रबाहु के समय फिर दोनों एक बन जाती हैं । इस भेद और अभेद के सैद्धान्तिक मतभेद का निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता । उस समय संघ एक था, फिर भी गण और शाखाएं अनेक थीं । आचार्य और चतुर्दशपूर्वी भी अनेक थे । किन्तु प्रभवस्वामी के समय से ही कुछ मतभेद के अंकुर फूटने लगे हों, ऐसा प्रतीत होता है ।
शय्यंभव ने दशवैकालिक में-- ' वस्त्र रखना परिग्रह नहीं है' - इस पर जो बल दिया है और ज्ञातपुत्र महावीर ने संयम और लज्जा के निमित्त वस्त्र रखने को परिग्रह नहीं कहा है - इस वाक्य द्वारा भगवान् के अभिमत को साक्ष्य किया है ।
उससे आन्तरिक मतभेद की सूचना मिलती है । कुछ शताब्दियों के पश्चात् शय्यम्भव का 'मुच्छा परिग्गहो वृत्तो' वाक्य परिग्रह की परिभाषा बन गया । उमास्वाति का 'मूर्च्छा परिग्रहः' - यह सूत्र इसी का उपजीवी है ।
जम्बूस्वामी के पश्चात् 'दस वस्तुओं' का लोप माना गया है । उनमें एक जिनकल्पिक अवस्था भी है । यह भी परम्परा-भेद की पुष्टि करता है । भद्रबाहु के समय [ वी० नि० १६० के लगभग] पाटलिपुत्र में जो वाचना हुई, उन दोनों परम्पराओं का मत - भेद तीव्र हो गया । इससे पूर्व श्रुत विषयक एकता थी । किन्तु लम्बे दुष्काल में अनेक श्रुतधर मुनि दिवंगत हो गए । भद्रबाहु की अनुपस्थिति में ग्यारह अंगों का संकलन किया गया । वह सबको पूर्ण मान्य नहीं हुआ। दोनों का मतभेद स्पष्ट हो गया । माथुरी वाचना में श्रुत का जो रूप स्थिर हुआ, उसका अचेलत्व- समर्थकों ने पूर्ण बहिष्कार कर दिया । इस प्रकार आचार और श्रुत विषयक मतभेद तीव्र होते-होते वीर - निर्वाण की छठी-सातवीं शताब्दी में एक मूल दो भागों में विभक्त हो गया ।
वेताम्बर से दिगम्बर शाखा निकली, यह भी नहीं कहा जा
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