Book Title: Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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जैन परम्परा का इतिहास के परिपार्श्व में रहने लगे। वीर-निर्वाण की दसवीं शताब्दी तक इनका प्रभुत्व नहीं बढ़ा। देवद्धिगणी के दिवंगत होते ही इनका सम्प्रदाय शक्तिशाली हो गया। विद्या-बल और राज्य-बल दोनों के द्वारा इन्होंने उग्र-विहारी श्रमणों [संविग्नपाक्षिकों] पर पर्याप्त प्रहार किया। हरिभद्रसूरि ने 'सम्बोध-प्रकरण' में इनके आचार-विचार का सजीव वर्णन किया है।
___ अभयदेवसूरि देवद्धिगणी के पश्चात् जैन-शासन की वास्तविक परम्परा का लोप मानते हैं ।
चैत्यवास से पूर्व गण, कुल और शाखाओं का प्राचुर्य होते हुए भी उनमें पारस्परिक विग्रह या अपने गण का अहंकार नहीं था। वे प्रायः अविरोधी थे। अनेक गण होना व्यवस्था-सम्मत था। गणों के नाम विभिन्न कारणों से परिवर्तित होते रहते थे । भगवान् महावीर के उत्तराधिकारी सुधर्मा के नाम से गण को सौधर्म-गण कहा गया। समन्तभद्रसूरि ने वनवास स्वीकार किया, इसलिए उसे वनवासी गण कहा गया।
चैत्यवासी शाखा के उद्भव के साथ एक पक्ष संविग्न, विधिमार्ग या सुविहितमार्ग कहलाया और दूसरा पक्ष चैत्यवासी। स्थानकवासी
इस संप्रदाय का उद्भव मूर्ति-पूजा के अस्वीकार पक्ष में हुआ। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में लोकाशाह ने मूर्ति-पूजा का विरोध किया और आचार की कठोरता का पक्ष प्रबल किया। ये गहस्थावस्था में ही थे। इनकी परम्परा में ऋषि लवजी, आचार्य धर्मसिंहजी और आचार्य धर्मदासजी प्रतिभाशाली आचार्य हुए। आचार्य धर्मदासजी के निन्यानवे शिष्य थे। उन्होंने अपने विद्वान् शिष्यों को बाईस ग्रुपों में बांटा और विभिन्न प्रांतों में उन्हें धर्मप्रचार करने के लिए भेजा। उसके बाद लोंकाशाह का सम्प्रदाय 'बाईस टोला' या बाईस-संप्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आगे चलकर, स्थानकों की मुख्यता के कारण यही 'स्थानकवासी' संप्रदाय के नाम से पहचाना जाने लगा। वर्तमान में इसका नाम 'श्रमण संघ' कर दिया गया है और यह भी अनेक विभागों में विभक्त दिखाई देता है।
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