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जैन परम्परा का इतिहास
३. युग-प्रधान ।
आचार्य सुहस्ती तक आचार्य गणनायक और वाचनाचार्य दोनों होते थे । वे गण की सार-सम्हाल और गण की शैक्षणिक व्यवस्था - इन दोनों उत्तरदायित्वों को निभाते थे । आचार्य सुहस्ती के बाद ये कार्य विभक्त हो गए। चारित्र की रक्षा करने वाले 'गणाचार्य' और श्रुतज्ञान की रक्षा करने वाले 'वाचनाचार्य' कहलाए । गणाचार्यों की परम्परा [ गणधर - वंश ] अपने-अपने गण के गुरु-शिष्यक्रम से चलती है । वाचनाचार्यों और युग-प्रधानों की परम्परा एक ही गण से सम्बन्धित नहीं है । जिस किसी भी गण या शाखा में एक के बाद दूसरे समर्थ वाचनाचार्य तथा युग-प्रधान हुए हैं, उनका क्रम जोड़ा गया है ।
आचार्य सुहस्ती के बाद भी कुछ आचार्य गणाचार्य और वाचनाचार्य दोनों हुए हैं । जो आचार्य विशेष लक्षण - सम्पन्न और अपने युग में सर्वोपरि प्रभावशाली हुए, उन्हें युग-प्रधान माना गया । वे गणाचार्य और वाचनाचार्य दोनों में से हुए हैं ।
सम्प्रदाय भेद
विचार का इतिहास जितना पुराना है, लगभग उतना ही पुराना विचार-भेद का इतिहास है । विचार व्यक्ति-व्यक्ति की ही उपज होता है, किंतु संघ में रूढ़ होने के बाद संघीय कहलाता है । तीर्थंकर-वाणी जैन संघ के लिए सर्वोपरि प्रमाण है । वह प्रत्यक्ष दर्शन है, इसलिए उसमें तर्क की कर्कशता नहीं है । वह तर्क से बाधित भी नहीं है । वह सूत्ररूप है । उसकी व्याख्या में तर्क का लचीलापन आया है । भाष्यकार और टीकाकार प्रत्यक्षदर्शी नहीं थे । उन्होंने सूत्र के आशय को परम्परा से समझा । कहीं समझ में नहीं आया, हृदयंगम नहीं हुआ तो अपनी युक्ति और जोड़ दी । लंबे समय में अनेक सम्प्रदाय बन गए । श्वेताम्बर और दिगम्बर जैसे शासन-भेद हुए । भगवान् महावीर के समय में कुछ श्रमण वस्त्र पहनते, कुछ नहीं भी पहनते । भगवान् स्वयं वस्त्र नहीं पहनते थे । वस्त्र पहनने से मुक्ति होती ही नहीं या वस्त्र नहीं पहनने से मुक्ति होती है, ये दोनों बातें गौण हैं । मुख्य बात है -राग-द्वेष से मुक्ति । जैन - परम्परा का भेद मूल तत्त्वों की अपेक्षा ऊपरी बातों या गौण प्रश्नों पर अधिक टिका हुआ है ।
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