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( १७ ) कारण मानने के पक्ष में भी हो जाती है। इसलिये अप्रामाणिक कुर्वद्रूपत्व की कल्पना कर उस रूपसे बीज को अङ्कर के प्रति कारण मानने का आग्रह स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस प्रकार कुर्वद्रूपत्व की सत्ता प्रमाणित न हो सकने पर उसके बल से मानी जाने वाली क्षणिकता का भी अवसर जाता रहता है ।
संग्राहकेतरविकल्पहतिश्च तत्र
व्यक्ती विरोधगमने ब्यवहारबाधः। व्यावृत्तयोऽप्यनुहरन्ति निजं स्वभाव
माकस्मिकव्यसनिता द्विषतां तवाहो ॥ ११ ॥ अङ्कर की उत्पादकता का नियामक कुर्वद्रूपत्व यवत्व का सङ्ग्राहक-व्यापक है अर्थात् सभी यवबीजों में रहता है, अथवा उसका संग्राहकेतर-विरोधी है अर्थात् किसी यवबीज में नहीं रहता, इस प्रकार के संग्राहक और प्रतिक्षेपक सम्बन्धी विकल्पों से कुवंद्रूपत्व नाम की काल्पनिक जाति का बाध होगा, क्योंकि पहले विकल्प में अङ्कर न पैदा करने वाले यवबीजों में भी उसकी प्रसक्ति और दूसरे विकल्प में अङ्कर पैदा करने वाले यवबीजों से भी उसकी निवृत्ति हो जायगी।
यदि सभी यवबीजों में उसका विरोध न मान कर अङ्करानुत्पादक यवबीजों में ही उसका विरोध एवं सभी यवबीजों में उसकी व्यापकता न मानकर अङ्करोत्पादक यवबीजों में ही उसकी व्यापकता स्वीकार करके कुर्वद्रूपत्व की संग्राहकता और विरोधिता दोनों ही मान ली जायगी तो परस्परव्यभिचारी जातियों में भी इस न्याय का संचार सम्भव हो सकने के नाते किसी अदृष्ट व्यक्ति में गोत्व ओर अश्वत्व के भी सहभाव की सम्भावना से उनके सर्वजनप्रसिद्ध सर्वाश्रयव्यापी विरोधव्यवहार का लोप होगा, क्योंकि उक्त प्रकार से दो जातियों में परस्पर की संग्राहकता और प्रतिक्षेपकता स्वीकार कर लेने पर 'परस्परव्यभिचारी जातियों का सहभाव नहीं होता' इस नियम का परित्याग हो जाता है।
परस्परव्यभिचार होने पर एक आश्रय में न रहना यह स्वभाव जातियों का ही न होकर जाति के प्रतिनिधिरूप में बौद्धकल्पित अतव्यावृत्तियों का भी है, अतः अतव्यावृत्तिरूप कूर्वद्रूपत्व की कल्पना भी उक्त विकल्पों से बाधित होगी।
है भगवन् । यह बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि तुम्हारे द्वेषी बौद्ध कुर्वद्रूपत्व की कल्पना के उस अनुचित पक्ष का आग्रह नहीं छोड़ते जिसमें अङ्कर आदि सामान्य कार्यों का जन्म आकस्मिक अर्थात् अव्यवस्थित हो जाता है।
२न्या०ख०