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कार असंकुचित होता है, उसके विषय में, इस वस्तु का ऐसा ही स्वभाव क्यों, इसके विपरीत क्यों नहीं ? ऐसे प्रश्न का औचित्य नहीं माना जाता। इसलिये जो एकदेश में एक कार्य का कारी-उत्पादक है, देशान्तर में उस कार्य का अकारित्व उसके स्वभाव रूप में नहीं प्राप्त होता। अतः देश-भेद से एक कार्य का कारित्व और अकारित्व ऐसे दो विरुद्ध धर्मो का सन्निवेश एक व्यक्ति में प्राप्त न होने के कारण क्षणस्थायी वस्तु में सर्वशून्यता-पर्यवसायी अनैक्य नहीं प्राप्त हो सकता। इसलिये अमुक पदार्थ अमुक ही स्थान में अमुक कार्य का जनन करता है ऐसा कहने वाले व्यक्ति का कोई अपराध नहीं होता। ___ यदि ऐसी बात क्षणिकवादी की ओर से कही जायगी तो स्थैर्यवादी की ओर से भी यह बात कही जा सकती है कि-सहकारी कारणों के सन्निधानकाल ही में कार्य का जनन करना-वस्तु का नियत स्वभाव है। और समालोचना स्वभाव के पद का स्पर्श नहीं कर सकती। अतः एक काल में जो जिस कार्य का कारी है, कालान्तर में उस कार्य का अकारित्व उसके स्वभाव रूप में सम्भावित नहीं हो सकता । इसलिये काल-भेद के आधार पर एक कार्य का कारित्व और अकारित्व-ऐसे विरुद्ध धर्मों का सम्बन्ध एक व्यक्ति में नहीं प्राप्त होगा । फलतः बौद्ध-मत में जैसे क्षणिक एक वस्तु में नानात्व नहीं प्रसक्त होता वैसे ही न्यायादिमत में स्थिर एक वस्तु में भी नानात्व नहीं प्रसक्त हो सकता।
हाँ, यदि किसी दृष्टिभेद से, एक कार्य का कारित्व और अकारित्व - इन विरुद्ध प्रतीत होने वाले दो धर्मों के सम्बन्ध की स्थापना एक व्यक्ति में करनी ही हो तो उसके लिये निमित्त-भेद का अनुसन्धान करना चाहिये । ___विरुद्ध प्रतीत होने वाले अनेक धर्मों में से किसी एक ही का सम्बन्ध एक व्यक्ति में स्वीकार करना उचित है क्योंकि उस स्थिति में निमित्त. भेद की कल्पना का आयास न करना होगा। हे जिनेन्द्र ! ऐसा आप के समक्ष नहीं कहा जा सकता क्योंकि आप उन सभी नयभेदों के अध्यक्ष हैं जिनके आधार पर एक व्यक्ति में भी अनेक आकार के व्यवहार होते हैं और जिनका सामञ्जस्य करने के लिये आपने प्रत्येक वस्तु के क्रोड में परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले अनन्त धर्मों के अस्तित्व का उपदेश किया है, अर्थात् प्रत्येक वस्तु को परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले अनन्त धर्मो का आश्रय बताया है ।
भाव यह है कि लोकसिद्ध व्यवहार के अनुरूप ही विषय-वस्तु की कल्पना उचित होती है न कि कल्पना के अनुरूप व्यवहार की व्यवस्था । अतः जो शास्त्रकार व्यवहार के ऊपर अपनी कल्पना का दबाव डालते हैं अर्थात् जिनके वस्तुवर्णन के अनुसार व्यवहार के यथास्थित रूप का निर्वाह नहीं होता वे