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स्थायी वस्तु में क्रमकारिता की सम्भावना की जा सकती है किन्तु उसमें अनेक दोष हैं, जैसे जो वस्तु क्रम से अपने कार्यों को करती है वह पहले कार्य को करने के समय दूसरे कार्यों को करने में समर्थ है या नहीं ? यदि नहीं तो बाद में भी वह समर्थ नहीं हो सकती क्योंकि यही वस्तु का स्वभाव है कि जो वस्त एक बार जिस कार्य को करने में असमर्थ होती है वह सदा उसे करने में असमर्थ ही रहती है, जैसे पाषाण का कण अङ्कर पैदा करने में । और यदि वह पहले कार्य के समय दूसरे कार्यों को करने में समर्थ है तो उसी समय सारे कार्य हो जाने चाहिये, क्योंकि समर्थ कारण के रहते कार्य का न होना संगत नहीं हैं। ___इस पर नैयायिक कह सकते हैं कि समर्थ कारण के रहते भी सहकारियों का सन्निधान न होने तक कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती क्योंकि जिस जाति का एक पदार्थ सहकारी कारणों के सन्निधान में जिस जाति के कार्य को उत्पन्न करता है उसी जाति का पदार्थान्तर सहकारी कारणों के असन्निधान में उस जाति के कार्य को नहीं उत्पन्न करता, जैसे क्षेत्रस्थ बीज मिट्टी, जल आदि सहकारियों के सन्निधान में अङ्कर को उत्पन्न करता है किन्तु उसी जाति का कुसूलस्थ बीज उन सहकारियों का सन्निधान न पाने के कारण अङ्कर को नहीं उत्पन्न करता । अतः यही सर्वसम्मत मत है कि प्रत्येक कारण सहकारियों का सहयोग पाकर ही अपने कार्य उत्पन्न करता है, भिन्न-भिन्न कार्य के सहकारियों का सन्निधान क्रम से होता है अतः भिन्न-भिन्न कार्यों की उत्पत्ति क्रम से ही होती है, इस प्रकार स्थायी वस्तु के क्रमिककार्यकारिता मानने में कोई दोष नहीं है ।
इसके उत्तर में बौद्धों का कथन यह है कि सहकारी कारणों की अपेक्षा किसी प्रयोजन के लिये ही स्वीकार्य हो सकती है, किन्तु उनका कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । जैसे उनका प्रयोजन क्या है ?
( १ ) अपेक्षा करनेवाले कारण के स्वरूप का सम्पादन करना । (२) या उस में कोई उपकार उत्पन्न करना । ( ३ ) अथवा उसके कार्य का जनन करना ।
इनमें पहिला प्रयोजन नहीं माना जा सकता क्योंकि अपेक्षा करने वाले कारण का स्वरूप सहकारी के सन्निधान के पहले ही से सिद्ध रहता है।
दूसरा भी प्रयोजन माननीय नहीं हो सकता, क्योंकि अपेक्षा करने वाला कारण यदि अपने कार्य में समर्थ हो तो उसे किसी के उपकार की आवश्यकता