Book Title: Jain Nyaya Khand Khadyam
Author(s): Badrinath Shukla
Publisher: Chowkhamba Sanskrit Series

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Page 154
________________ ( १४५ ) मोक्ष के लिये कदापि प्रयत्नशील न हो सकेगा । अतः मनुष्य को यदि इस संसार - चक्र से मुक्ति अयोक्षित है, संसार के राग द्वेषमय विषाक्त वातावरण से दूर होने की यदि उसे कामना है तो उसे आत्मा के विषय में अपने आपके सम्बन्ध में दूसरे प्रकार की धारणा बनानी होगी। उसे इस सत्य को समझना होगा और इस निष्कर्ष पर पहुँचना होगा कि आत्मा का कोई वास्तव अस्तित्व नहीं है, वह तो जीवित शरीर में विषयेन्द्रिय के सन्निधान से क्षणभर के लिये स्फुरित होने वाली चेतना का एक नश्वर सन्तान अथवा विभ्रान्त मानवकी एक मनःकल्पनामात्र है । अतः इस मिथ्या कल्पनाको जीवित बनाये रखने के लिये जगत् के दुखःमय संघर्षों में पड़ना महान् अज्ञान है । जब मनुष्य के मन मे इस प्रकार के सद्विचार का उदय होगा तो वह अनायास ही संसार के सर्वविध व्यापार से अपना नाता तोड़ लेगा और अपनी आत्म-भावना को परिपक्व बनाता हुआ शनैः शनैः जगत् के समग्र बन्धनों से सदा के लिये मुक्त हो जायगा । असत्त्व की यह पारिभाषिक व्याख्या भी ठीक नहीं है क्योंकि आत्मा को नित्य एवं निसर्ग निर्मल माने विना मुक्त होने की भावना का उन्मेष ही नहीं हो सकता । मनुष्य जब तक यह समझता रहेगा कि उसका जन्म और जीवन शरीर से बंधा है, शरीर के साथ ही वह पैदा होता है और उसी के साथ समाप्त हो जाता है, शरीर पर घटित होने वाली समस्त घटनायें उसे प्रभावित करती हैं, शरीर के लिये जो वस्तुयें वाञ्छनीय वा अवाञ्छनीय हैं वही उसके लिये भी वाञ्छनीय वा अवाञ्छनीय हैं, तब तक वह शरीर से परे अपने सम्बन्ध में कुछ सोचही नहीं सकता, मोक्ष का यह महनीय विचार उसके मानस में अङ्कुरित ही नहीं हो सकता । इसी प्रकार अपने विषय में उसकी यदि यह धारणा होगी कि उसकी अपनी कोई वास्तव एवं शाश्वत अज्ञान वा वासना द्वारा खड़ा किया गया क्षणभङ्कुर चेतना का उपप्लुत एक अशाश्वत प्रवाह मात्र है, तब भी उसके हृदय का उन्मीलन नहीं हो सकता । सत्ता नहीं है, वह विविध विषयों से में मुक्तिमनीषा आत्मा के सम्बन्ध में ये समस्त दृष्टियां नास्तिक्य-दृष्टि हैं । नास्तिक्य दृष्टि से दग्ध हृदय में सद्विचार और सदाचार के अङ्कुर कभी नहीं उग सकते, नास्तिक की भोगलिप्सा कभी नहीं शान्त हो सकती । इस लिये यह सुनिश्चित है कि मोक्ष की सदिच्छा मनुष्य के मानस में तभी उदित होगी जब उसकी यह धारणा दृढ़ होगी कि वह एक स्वतन्त्र एवं सहज शुद्ध, शाश्वत, प्रामाणिक पदार्थ है, सुख, दुःख, राग, द्वेष आदि उसके स्वरूपानुस्यूत धर्म नहीं हैं, जगत् की इष्ट-अनिष्ट वस्तुवों के सम्पर्क से अथवा जन्म १० न्या० ख०

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