Book Title: Jain Nyaya Khand Khadyam
Author(s): Badrinath Shukla
Publisher: Chowkhamba Sanskrit Series

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Page 178
________________ ( १६६) ज्ञान क्रिया की अपेक्षा प्रधान होता है, अर्थात् फलप्राप्ति का कारण ज्ञान होता है क्रिया नहीं होती, क्योंकि क्रिया होने पर भी फल की प्राप्ति नहीं देखी जाती, जैसे सीपी में चांदी का भ्रम होने पर चांदी को प्राप्त करने की क्रिया होती है पर उस क्रिया से चांदी की प्राप्ति नहीं होती, इसी प्रकार जहां क्रिया लज्जित सी अपना मुख छिपाये रहती है अर्थात् जहाँ क्रिया उपस्थित नहीं रहती वहां भी मन्त्रज्ञान से आकर्षण आदि फलों की सिद्धि होती है, अतः क्रिया में फलप्राप्ति का अन्वय और व्यतिरेक दोनों प्रकार के व्यभिचार होने से क्रिया को फलप्राप्ति का कारण नहीं माना जा सकता। पश्यन्ति किं न कृतिनो भरतप्रसन्न चन्द्रादिषूभयविध व्यभिचारदोषम् । द्वारीभवन्यपि च सा न कथं चिदुच्चै नि प्रधानमिति सकरमनहेतुः ॥ ८२ ॥ इस श्लोक में मोक्षरूप फल के प्रति क्रिया का व्यभिचार बता कर उसकी अपेक्षा ज्ञान की प्रधानता प्रदर्शित की गई है, श्लोकार्थ इस प्रकार है । क्या विद्वानों को यह ज्ञात नहीं है कि भरत, प्रसन्नचन्द्र आदि पुरुषों में मोक्षप्राप्ति के प्रति क्रिया में अन्वय और व्यतिरेक दोनों प्रकार के व्यभिचार हैं, अर्थात् क्रियावान् होने पर भी प्रसन्नचन्द्र को मुक्ति का लाभ नहीं हुआ और क्रियाहीन होने पर भी भरत को मुक्ति प्राप्त हो गई। यदि यह शंका की जाय कि ज्ञान भी तो सीधे फलसिद्धि का सम्पादक न होकर क्रिया के द्वारा ही उसका सम्पादक होता है, तो फिर ज्ञान क्रिया की अपेक्षा प्रधान कैसे हो सकता है, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि क्रिया यद्यपि कथंचित् ज्ञान का द्वार है तथापि वह 'ज्ञान क्रिया की अपेक्षा प्रधान है' इस उच्च प्रतिज्ञा का व्याघात नहीं कर सकती। कहने का आशय यह है कि फलसिद्धि में ज्ञान के क्रियासापेक्ष होने से उसकी निरपेक्षता की हानि हो सकती है पर उसकी प्रधानता की हानि नहीं हो सकती। क्योंकि प्रधानता की हानि तब होती जब उसके विना केवल क्रिया से ही फल की प्राप्ति होती, पर यह बात तो है नहीं, हाँ, क्रियासापेक्ष होने से उसे फलसिद्धि का निरपेक्ष कारण नहीं माना जा सकता, पर इससे कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि निरपेक्ष कारणता का समर्थन करना अभीष्ट नहीं है। सम्यक्त्वमप्यनवगाढमृते किलेत. ___ दभ्यासतस्तु समयस्य सुधावगाढम् । ज्ञानं हि शोधकममुष्य यथाअन स्या दक्ष्णो यथा च पयसः कतकस्य चूर्णम् ॥ ८३॥

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