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के पवित्रतम सर्वोच्च पद पर पहुंचा जा सकता है तो स्पष्ट है कि सम्यक्त्व ज्ञान की अपेक्षा अति श्रेष्ठ है ।
भ्रष्टेन संयमपदादवलम्बनीयं
। सम्यक्त्वमेव दृढमत्र कृतं प्रसङ्गैः। चारित्रलिङ्गवियजोऽपि शिवं व्रजन्ति
तद्वर्जितास्तु न कदाचिदिति प्रसिद्धिः ॥ ८६ ॥ इस श्लोक में चारित्र्य की अपेक्षा भी सम्यक्त्व को श्रेष्ठ बताया गया है, श्लोकार्थ इस प्रकार है।
. संयम के पद से-चारित्र के मार्ग से च्युत होने पर मनुष्य को दृढ़ता के साथ सम्यक्त्व का ही अवलम्बन करना चाहिये, सम्यक्त्व को छोड़ किसी अन्य साधन के पीछे नहीं दौड़ना चाहिये, क्योंकि यह बात प्रसिद्ध है कि चारित्र का चिन्ह भी न रखने वाले मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं पर सम्यक्त्व-श्रद्धारहित मनुष्य कभी भी मोक्ष को नहीं प्राप्त कर पाते ।
ज्ञानी सुदृष्टिरपि कोऽपि तपो व्यपोह्य
___ दुष्कर्ममर्मदलने न कदापि शक्तः। पतन्त्रिकाचितमपि प्रणिहन्ति कमें
त्यभ्यर्हितं भवति निर्वृतिसाधनेषु ॥ ८७॥ इस श्लोक में ज्ञान और श्रद्धा दोनों की अपेक्षा क्रिया को प्रधान बताया गया है, श्लोकार्थ इस प्रकार है । __ज्ञान और सम्यगदर्शन-श्रद्धा से सम्पन्न होने पर भी तप-सत्कर्म की उपेक्षा कर कोई भी मनुष्य दुष्कर्मों का विनाश करने में कभी भी समर्थ नहीं होता, और तप निकाचित-अन्य समस्त साधनों से क्षय न किये जाने योग्य कर्म को भी नष्ट कर देता है, अत; मोक्ष के सम्पूर्ण साधनों में तप ही अभ्यहित है ।
सम्यक क्रिया व्यभिचरेन्न फलं विशेषो
हेत्वागतो न परतोऽविनिगम्यभावात् । न द्रव्यभावविधया बहिरन्तरङ्ग
भावाच्च कोऽपि भजनामनुपोह्य भेदः ।। ८८ ॥ इस श्लोक में फलप्राप्ति के प्रति क्रिया के उस व्यभिचार का परिहार किया गया है जो एकासीवें श्लोक में उद्भावित किया गया था, श्लोकार्थ इस प्रकार है।
फलप्राप्ति का कारण सामान्य क्रिया नहीं है किन्तु सम्ययक क्रिया है, क्योंकि सम्यक् क्रिया होने पर फलप्राप्ति अवश्य होती है, उसमें फलप्राप्ति