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मृत्यु की घटनावों से उसके निजी स्वरूप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, उसमें इन धर्मो की अनुभूति तो केवल इस लिये होती है कि उसने अनादि काल से अपने सच्चे स्वरूप को विस्मृत कर अपने आप को देहेन्द्रियसंघात से अभिन्न मान रखा है । अतः उसका वास्तव हित देह आदि के साथ सम्पर्क त्याग और अपने यथार्थ स्वरूप की पहचान से ही हो सकता है । भिन्नक्षणेष्वपि यदि क्षणता प्रकल्प्या
क्लप्तेषु साऽस्स्विति जगत्क्षणिकत्वसिद्धिः। तद्द्व्य ता तु विजहाति कदापि नो तत्
सन्तानतामिति तवायमपक्षपातः ।। ६२ ।। न्याय दर्शन में आत्मा को एकान्त नित्य और बौद्ध दर्शन में एकान्त क्षणिक माना गया है, किन्तु भगवान् महावीर का स्याद्वादशासन नितान्त पक्षपात-रहित है। अतः उसके अनुसार आत्मा न केवल नित्य और न केवल क्षणिक है अपितु अपेक्षाभेद से नित्य भी है और साथ ही क्षणिक भी है । तात्पर्य यह है कि आत्मा शब्द किसी एक व्यक्ति का बोधक न होकर एक ऐसे अर्थसमूह का बोधक है जिसमें कोई एक अर्थ नित्य और अन्य अर्थ क्षणिक हैं, जो अर्थ नित्य है उसका नाम है द्रव्य और जो अर्थ अनित्य है उन सब का नाम है पर्याय, इस प्रकार आत्मा द्रव्य, पर्याय उभयात्मक है और द्रव्यात्मना नित्य तथा पर्यायात्मना क्षणिक है ।
प्रख्यात नैयायिक दीधितिकार श्रीरघुनाथशिरोमणि ने क्षण को अतिरिक्त पदार्थ ओर क्षणिक माना है, इस मत की आलोचना करते हुये ग्रन्थकार का कथन यह है कि नवीन धर्मी और धर्म की कल्पना करने की अपेक्षा पूर्वतः सिद्ध पदार्थों में धर्ममात्र की कल्पना में लाघव होता है, अतः क्षणनामक अनन्त अतिरिक्त पदार्थ मानकर उन सबों में क्षणत्व की कल्पना करने की अपेक्षा प्रथमतः सिद्ध समस्त पदार्थो में ही क्षणत्व की कल्पना में लाघवमूलक औचित्य है । फलतः संसार के समस्त स्थिर पदार्थों के क्षणरूप होने से आत्मा की भी क्षणरूपता-क्षणिकता अनिवार्य है।
प्रश्न होगा कि स्थिरत्व और क्षणिकत्व ये दोनों धर्म परस्पर विरोधी हैं फिर एक पदार्थ में इन दोनों का समावेश कैसे होगा ? उत्तर यह है कि संसार के प्रत्येक पदार्थ में दो अंश होते हैं एक स्थायी और एक क्षणिक, स्थायी अंश का नाम है सामान्य वा द्रब्य और क्षणिक अंश का नाम है विशेष वा पर्याय, ये दोनों अंश परस्पर में न तो एकान्ततः भिन्न होते हैं और न एकान्ततः अभिन्न । अतः पर्याय नामक अंश के क्षणिक होते हुये भी द्रव्यात्मना