Book Title: Jain Nyaya Khand Khadyam
Author(s): Badrinath Shukla
Publisher: Chowkhamba Sanskrit Series

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Page 156
________________ ( १४७ ) स्थायी और द्रव्यनामक अंश के नित्य होते हुये भी पर्यायात्मना क्षणिक होता है । इस प्रकार संसार का प्रत्येक पदार्थ अपने द्रव्यात्यक रूप में स्थायी और अपने पर्यायात्मक रूप में क्षणिक होता है । जैन दर्शन में माना गया पदार्थों का यह द्रव्य - अंश बौद्ध दर्शन में माने गये सन्तान के समान है । अन्तर केवल इतना है कि बौद्ध दर्शन का सन्तान सन्तानी क्षणों से पृथक् अपना कोई अस्तित्व नहीं रखता, परन्तु जैन दर्शन का द्रव्य पर्यायों से पृथक अपना स्वतन्त्र अस्तित्व भी रखता है । यही कारण है कि जैन दर्शन का तद्रव्यत्व किसी भी उभय वा उभयाधिक पदार्थ में आश्रित नहीं होता, पर बौद्ध दर्शन का तत्सन्तानत्व उस सन्तान के घटक दो वा दो से अधिक क्षणों में आश्रित होता है । न द्रव्यमेव तदसौ समवायिभावात् पर्यायताऽपि किमु नात्मनि कार्यभावात् । उत्पत्तिनाशनियत स्थिरताऽनुवर्ति द्रव्यं वदन्ति भवदुक्तिविदो न जात्या ॥ ६३ ॥ जिस न्याय से आत्मा एकान्ततः नित्य नहीं है उसी न्याय से वह एकान्ततः द्रव्य भी नहीं है, किन्तु स्वगत गुणों का समवायिकारण होने से यदि वह द्रव्य है तो जन्म, जरा आदि अनन्त कार्यों का आस्पद होने से वह पर्याय भी है और यही कारण है जिससे वह मोक्षसाधनों के अनुष्ठान द्वारा संसारी रूप से निवृत्त होकर सिद्ध-मुक्त रूप से प्रादुर्भूत हो सकता है । यदि वह केवल द्रव्य रूप ही होगा, पर्याय रूप न होगा तो एक रूप से उसकी निवृत्ति और अन्य रूप से उसकी प्रादुभूति न हो सकेगी। दूसरी बात यह है कि कोई भी पदार्थ समवायिकारण होने से द्रव्य नहीं हो सकता किन्तु परिणामीकारण होने से ही द्रव्य हो सकता है, इसका कारण यह है कि जिस मत में समवायिकारण से कार्य की उत्पत्ति होती है उस मत में कार्य और कारण में परस्पर भेद माना जाता है । फलतः उस मत में यह प्रश्न स्वभावत: उठता है कि कार्य अपनी उत्पत्ति से पूर्व सत् होता है अथवा असत् । यदि सत् होगा तो उसका जन्म मानना असंगत होगा। क्योंकि किसी वस्तु को अस्तित्त्व में लाने के लिये ही उसके जन्म की आवश्यकता होती है । फिर जिस वस्तु का अस्तित्व पहले से ही सिद्ध है उसका जन्म मानना व्यर्थ है । इसी प्रकार कार्यं यदि अपनी उत्पत्ति से पूर्व असत् होगा तो भी उसका जन्म मानना असंगत होगा क्योंकि जो स्वभावतः असत् है उसे जन्म-द्वारा भी अस्तित्व का लाभ नहीं हो सकता । परिणामी कारण से मानने पर उक्त प्रश्न के उठने का अवसर नहीं होता। कार्य की उत्पत्ति क्योंकि परिणामी

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