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((१५३ ) तब द्रव्य पद नियमेन बहुवचनान्त ही क्यों नहीं होता ? इस पद्य के पूर्वार्ध में इसी शङ्का का समाधान प्रस्तुत किया गया है जो इस प्रकार है___ एक व्यक्ति में बौद्ध बहुत्व का बोध सम्पादित करने के दो प्रकार हैंएक तो यह कि उसे उद्देश्यभूत किसी एक व्यक्ति में विधेय बना दिया जाय, जैसे 'एक घट उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य के भेद से बहुरूप है' दूसरा यह कि उसे एकत्व के अनुवाद्य-उद्देश्य कोटि में डाल दिया जाय, जैसे उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य इन तीनों का आश्रय एक है'। बौद्ध बहुत्व के ये दोनों प्रकार के ही बोध नियमेन एकत्व की अपेक्षा रखते हैं, इस अपेक्षा की पूर्ति के लिये द्रव्यपद के साथ एकवचन का प्रयोग अपरिहार्य रूप से आवश्यक है। इस आवश्यकता की पूर्ति द्रव्य पद को नियमेन बहुवचनान्त मानने पर नहीं हो सकती, अतः बौद्ध बहुत्व की दृष्टि से भी द्रव्यपद को नित्य बहुवचनान्त नहीं माना जा सकता।
द्रव्य पद को उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य के आश्रय का वाचक मानने पर उसके नित्य बहुवचनान्त होने की शङ्का एक और प्रकार से भी होती है और वह प्रकार यह है कि जब द्रव्य पद उक्त तीन धर्मों के आश्रय का वाचक होगा तो उन तीनों में प्रत्येक का स्वतन्त्र रूप से आश्रय के साथ अन्वय होगा और उस दशा में उत्पत्त्याश्रय. विनाशाश्रय और ध्रौव्याश्रय के रूप में तीन आश्रयों का बोध होगा फिर जब नियमतः तीन आश्रय बोधनीय होंगे तब उन तीन आश्रर्यो के बोधनार्थ द्रव्य पद को नित्य बहुवचनान्त होना अनिवार्य है, पद्य के उत्तरार्ध में इस दूसरी शङ्का का उत्तर प्रस्तुत किया गया है जो इस प्रकार है
द्रव्य पद से होने वाले बोध में उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य के आश्रय-त्रय का भान नहीं माना जा सकता क्योंकि द्रक्ष्य पद का प्रयोग उक्त आश्रय-त्रय का बोध कराने के अभिप्राय से नहीं होता अपि तु उत्पत्ति आदि तीनों धर्मों के एक आश्रय का बोध कराने के अभिप्राय से होता है जिसकी पूर्ति द्रव्य से आश्रयत्रय का बोध मानने पर नहीं हो सकती। इस अभिप्राय के पूर्त्यर्थ यह मानना आवश्यक है कि द्रव्य पद से उत्पन्न होने वाले बोध में आश्रय के साथ उत्पत्ति आदि धर्मो का स्वतन्त्र रूप से अन्वय न होकर एक विशिष्ट अपर रूप में होता है अर्थात् दव्य पद से उत्पत्तिविशिष्टविनाशविशिष्ट ध्रौव्य के एक आश्रय का बोध होता है । इस प्रकार का बोध मानने पर यदि यह आपत्ति खड़ी हो कि उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य में कौन किसका विशेषण हो इस बात का कोई निर्णायक न होने के कारण उक्त रीति से विशिष्ट आश्रय का एकविध