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संसर्ग न सिद्ध हो सकने के कारण किसी का किसी में भेद नहीं सिद्ध हो सकेगा अतः संसार भर में अभेद-अद्वैत या ऐक्य का प्रसङ्ग हो जायगा।
(२) नाश अलीक है, यह मानने का तात्पर्य यह है कि जैसे खरहे की सींग आदि अलीक पदार्थ अहेतुक हैं वैसे ही नाश भी अलीक होने पर अहेतुक होगा, अहेतुक होने से किसी कारण की अपेक्षा न होने के कारण जन्य भावों का नाश उनकी उत्पत्ति के दूसरे क्षण में ही हो जायगा, इस प्रकार वस्तुमात्र की क्षणिकता सिद्ध होगी।
यह दूसरा पक्ष भी ग्राह्य नहीं है क्योंकि अलीक का जन्म नहीं हो सकता, जन्म उसी का होता है जिसमें नियत देश और काल का सम्बन्ध सम्भव होता है, क्योंकि देश-काल से असम्बद्धता का नाम ही अलीकता है, अतः नाश की अलीकता-पक्ष में उसका जन्म न हो सकने के कारण भावकार्य की नित्यता प्रसक्त हो जायगी।
(३) नाश नश्यमान भाव का कार्य है-नाश की ध्रुवभाविता का यह तीसरा अर्थ मानने का अभिप्राय यही है कि नाश में नश्यमान वस्तु से अतिरिक्त कोई कारण नहीं है. अतः उसमें भावोत्पत्ति के बाद होने वाले किसी कारण की अपेक्षा नहीं है, इसलिये वस्तु का जन्म होते ही नाश के कारण का सन्निधान पूर्ण हो जाने से जन्म के दूसरे क्षण में ही वस्तु का नाश हो जाता है, इस प्रकार भाव वस्तु की क्षणिकता सिद्ध होती है।
किन्तु यह तीसरा पक्ष भी ठीक नहीं है क्योंकि नाश में नश्यमान वस्तु से अतिरिक्त कोई कारण नहीं है यह बात असिद्ध है, इसलिये इस हेतु से यह अनुमान नहीं हो सकता कि नाश में भावोत्पत्ति के बाद होनेवाले किसी कारण की अपेक्षा नहीं है अथवा भाव का नाश भावोत्पत्ति के दूसरे क्षण में ही हो जाता है।
( ४ ) नाश नश्यमान भाव का व्यापक है-नाश की ध्रुवभाविता का यह चौथा पक्ष मानने का तात्पर्य यह है कि नाश जब भाव का व्यापक होगा तो उसे भावोत्पत्ति के बाद होने वाले कारण में निरपेक्ष ही मानना होगा, क्योंकि नाश में भावोत्पत्ति के बाद होनेवाले कारण की अपेक्षा मानने पर जिस भाव के बाद उसके नाश के कारण का जन्म या सन्निधान न होगा वह भाव नष्ट न हो सकेगा, फलतः उसका नाश उस भाव का व्यापक नहीं होगा।
परन्तु यह चौथा पक्ष भी मानने योग्य नहीं है क्योंकि बौद्धमत में जिन बस्तुओं में तादात्म्य होता है उनमें एक दूसरे का व्याप्य और व्यापक होता है और जिनमें कार्यकारणभाव होता है उनमें कार्य व्याप्य और कारण व्यापक