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है तो भी प्रधानरूप से वह नित्य ही माना जाता है अर्थात् नित्यता आत्मा MIT नैसर्गिक तथा स्थायी धर्म है और अनित्यता कृत्रिम तथा अस्थायी, क्योंकि आत्मा अपने निजी रूप आत्मत्व से कभी व्ययशील रूप हैं उन्हीं रूपों से वह अनित्य
च्युत नहीं होता, अतः जो उसके हो सकता है, इसे समझने में गगन दृष्टान्त अधिक सहायक होगा, क्योंकि गगन भी शब्दरूप से अनित्य है। और अपने द्रव्यरूप से सर्वथा अविकृत होने के नाते नित्य है । इस दृष्टिकोण से आत्मा का विचार करने पर बौद्धों का क्षणभङ्गवाद उसे एकान्तरूप से अनित्य नहीं बना सकता ।
विज्ञानवादी बौद्ध का बाह्यार्थभङ्ग-वाद अर्थात् क्षणिक ज्ञान से भिन्न वस्तु की असत्ता का सिद्धान्त भी आत्मा की नित्यता पर आक्रमण नहीं कर सकता क्योंकि निरन्वय रूप से सर्वात्मना नष्ट हो जानेवाले क्षणिक ज्ञानमात्र के अस्तित्व का विचार किसी भी स्वस्थचित्त पुरुष के हृदय में किंचित् भी स्थान नहीं पा सकता, अर्थात् अपने जन्म के दूसरे ही क्षण सर्वतोभावेन नष्ट हो जानेवाला ज्ञानमात्र ही एक तत्त्व है और उससे भिन्न प्रतीत होने वाला सारा जगत् कल्पनामात्र है यह बात विचार के निकष पर सत्य नहीं उतर सकती ।
इष्टस्त्वया तु परमार्थसतोरभेदोऽ
भिन्नै जात्यमुत वेद्यविधेर्मृषात्वम् । इत्थं विचारपदवीं भवदुक्तिबाह्यो
तो न हेतुबलमाश्रयितुं समर्थः ॥ ३६ ॥ इस श्लोक में "ज्ञान से भिन्न वस्तु की सत्ता अप्रामाणिक है" विज्ञानवादी वौद्ध के इस मत के खण्डन का निर्देश किया गया है ।
आत्मा अपने निजी रूप से नित्य है, अपने पूर्वकृत कर्मों के अनुरूप देह, इन्द्र आदि का सम्बन्ध पाकर उनके अभ्युदय और अवसाद से प्रसाद और विषाद की अनुभूति करता है तथा उन्हींके सहयोग से अनेक प्रकार के प्रशस्त एवं मलिन आचरण करता हुआ अपने लिए नई-नई कर्मशृङ्खलायें तयार करता रहता है और इस प्रकार अपने ही हाथों खड़े किए गए भूलभुलैया के भवन में भटकता रहता है, किन्तु जब कभी उसके चिरसुप्त सुकृत का जागरण होता है तब उसके प्रभाव से सद्गुरु का सम्पर्क पा उसके उपदेशरूपी प्रकाश में सन्मार्ग प्राप्त करता है और उसे अपनाकर अपनी जीवनयात्रा का संचालन करता हुआ धीरे-धीरे अपने अन्तिम लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है ।
नित्य - आत्मवादियों के ये वाक्य विज्ञानवादी बौद्ध के कानों में शूल के समान चुभने लगते हैं और वह उनके विरोध में बोल उठता है कि क्षणिक ज्ञान