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भूतल में स्थूलता की प्रतीति की उपपत्ति नहीं की जा सकेगी क्योंकि घट का भूतलात्मक आश्रयभूत दिग्देश तो अनुभव में आता है पर भूतल का आश्रयभूत कोई दिग्देश अनुभव में नहीं आता। उक्त दोषों के कारण यदि यह कहा जाय कि अनेक दिग्देशों में आश्रित होने का नाम स्थूलता नहीं है अपितु वह एक विशिष्ट प्रकार का परिमाण है, पर उसका आधार कोई एक द्रव्य नहीं होता अपितु वह परिमाण अनेक परमाणुओं में आश्रित होता है, तो यह कथन भी संगत नहीं है, क्योंकि उस स्थिति में 'यह एक स्थूल वस्तु है' इस प्रकार की प्रतीति न होकर ये परमाणु स्थूल हैं। इस प्रकार की प्रतीति का होना ही न्यायसंगत होने लगेगा, जो कथमपि स्वीकार्य नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि सूक्ष्म और अतीन्द्रिय परमाणु जब दूरी का परित्याग कर निकट में आ जाते हैं तब वे अपने स्थान में दूसरे परमाणुओं को जन्म देते हैं और इस नवीन जन्म के प्रभाव से वे नये परमाणु अनेक तथा परमाणुस्वरूप होते हुये भी सूक्ष्म तथा अतीन्द्रिय न होकर स्थूल, इन्द्रिययोग्य तथा एकत्व प्रतीति के योग्य हो जाते हैं, फलतः एक अतिरिक्त अवयवी द्रव्य की उत्पत्ति न मानने पर भी नवोत्पन्न परमाणुओं से ही एकत्व तथा स्थूलत्व की प्रतीति उपपन्न हो जाने के कारण अवयवावयविभाव की सिद्धि निराधार हो जाती है, तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि पूर्व के परमाणुओं से दूसरे परमाणुओं की उत्पत्ति की कल्पना तभी मान्य हो सकती है जब 'सर्व क्षणिकम्' का सिद्धान्त माना जाय, और वह सिद्धान्त अनन्त दोषों के कारण त्याज्य ठहराया जा चुका है।
इस प्रकार ऊपर बताई गई युक्तियों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि ज्ञान की सत्ता के द्वारा स्थूल तथा सूक्ष्म बाह्य वस्तुओं की सत्ता को समाप्त कर 'ज्ञान से भिन्न वस्तु नहीं होती, जो कुछ प्रतीत होता है वह सब ज्ञानात्मक है' इस योगाचार के मत को मान्यता नहीं दी जा सकती। ___ यहाँ तक के पूरे सन्दर्भ में न्यायशास्त्र की जिन नीतियों एवं युक्तियों से बाह्यार्थभङ्ग का अर्थात् ज्ञान से अतिरिक्त वस्तु की सत्ता नहीं होती। प्रतीत होने वाला समस्त वस्तुजात ज्ञान का ही आकार होता है, इस बौद्धसम्मत विज्ञानवाद का खण्डन किया गया है उनमें न्यायशास्त्र की एकान्त दृष्टि का मलिन गन्ध भरा हुआ है, अग्रिम सन्दर्भ में उसका शोधन कर दिया जायगा जिससे उक्त नीतियां तथा युक्तियाँ जैनशास्त्र को भी ग्राह्य हो जायेंगी और इसीलिये बाह्यार्थभङ्ग के खण्डनार्थ उसे नूतन अस्त्र अन्वेषण करने की आवश्यकता न होगी।
स्याद्वादतस्तव तु बाह्यमथान्तरङ्गं
सल्लक्षणं शबरलतां न जहाति जातु |