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अवयव में निष्कम्प माना जायगा तब कम्प और कम्पाभाव के सह सन्निवेश से अवयवी की अनेकान्तरूपता अपरिहार्य होगी।
न व्याप्यते यदि भिदानुभवाश्रयत्वा
देकत्र रक्तिमविपर्यययोर्विरोधः । सर्वत्र तच्छबलताप्रतिबन्धसिद्धि
दुर्वादिकुम्भिमदमर्दनसिंहनादः ॥ ५८ ॥ जो वस्त्र लाल रंग से आधा रंगा और आधा विना रंगा होता है, उसमें रंगे भाग में रक्तता और न रंगे भाग में रक्तता का अभाव होता है, किन्तु किसी एक ही भाग में रक्तता और रक्तता का अभाव नहीं होता, इसलिये रक्तत्व और रक्तत्वाभाव में 'एक भाग में एक आश्रय में न होना' रूप विरोध होता है, पर इस विरोध में रक्त और अरक्त के भेद की व्याप्ति नहीं हो सकती, अर्थात् यह नियम नहीं हो सकता कि रक्तत्व और रक्तत्वाभाव के आश्रय परस्पर में भिन्न ही होते हैं, क्योंकि उक्त प्रकार के एक ही वस्त्र में भागभेद से रक्तत्व तथा रक्तत्वाभाव दोनों का अनुभव होता है, फिर जब विरुद्ध धर्मों में आश्रयभेद का नियम नहीं सिद्ध हो सकता तो इसका अर्थ यह होगा कि जिन धर्मों में विरोध होता है उनमें एकान्ततः विरोध ही नहीं होता अपितु किसी एक अपेक्षा से विरोध तथा अन्य अपेक्षा से अविरोध भी होता है, एवं उन धर्मों में एक धर्म के आश्रय में दूसरे धर्म के आश्रय का सर्वथा भेद ही नहीं होता किन्तु किसी एक दृष्टि से भेद तथा दूसरी दृष्टि से अभेद भी होता है, फलतः संसार के समस्त पदार्थों में विरोध तथा अविरोध एवं भेद तथा अभेद की शबलता अर्थात् मिश्रित स्थिति का नियम निष्पन्न होता है, इस बात को समझने के लिये सत्ता तथा पानकरस का उदाहरण उपयुक्त है, सता की बात यह है कि सत्ता द्रव्यत्व से विशिष्ट होकर द्रव्य में ही और गुणत्व से विशिष्ट होकर गुण में ही रहती है, इस लिये विशिष्ट स्वरूप की दृष्टि से द्रव्यत्वविशिष्ट सत्ता तथा गुणत्वविशिष्ट सत्ता में परस्पर विरोध और उनके आश्रय द्रव्य तथा गुण में परस्पर भेद होता है, परन्तु द्रव्यत्व तथा गुणत्व विशेषणों से मुक्त विशुद्ध सत्ता की दृष्टि से न तो उसमें विरोध ही होता और न उसके आश्रय में भेद ही होता, अर्थात् दृष्टि भेद से सत्ता में सत्ता का विरोध भी होता है और अविरोध भी होता है, एवं उसके आश्रयों में भी दृष्टिभेद से भेद भी होता है और अभेद भी होता है । पानकरस की बात यह है कि सोंठ, मिरच, इलायची, किसमिस, पिस्ता और खांड़ आदि द्रव्यों को दूध में पका कर एक पेय तैयार किया जाता है, उस पेय का रस एक मात्र तीता, कडुआ, कसैला या मीठा ही नहीं होता, किन्तु उसमें