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जानन्ति ये न गतवर्षशतायुषोऽपि
धिक्तेषु मोहनृपतेः परतन्त्रभावम् ॥ ५५ ॥
हे भगवन् ! छः वर्ष के वय का आप का स्नेहपात्र बालक, जिसे अतिमुक्तक ऋषि की अवस्था प्राप्त है, जिसे उस छोटे ही वय में वस्तु की अनेकान्तता का दर्शन होने लगा है और जिसने उसी वय में जननी की अनुज्ञा प्राप्त कर जैनशास्त्रोक्त दीक्षा ग्रहण कर ली है, जिस वस्तु को अवगत कर लेता है उसे अन्य सम्प्रदाय के सुविख्यात अतिवृद्ध विद्वान् भी नहीं जान पाते, वे इस दयनीय अज्ञानदशा में क्यों पड़े रहते हैं ? इसलिये कि जब उन्हें किसी वस्तु का अंशतः तत्त्वदर्शन प्राप्त होता तो वे उसी को वस्तु की पूर्णता मान बैठते हैं, उन्हें अहङ्कार हो जाता है कि उन्होंने उस वस्तु को साकल्येन जान लिया है, अब उन्हें उसके सम्बन्ध में कुछ और जानने को शेष नहीं है । फलतः उस वस्तु के विषय में और नई जानकारी प्राप्त करने की उनकी आकाङ्क्षा समाप्त हो जाती है, उनकी यह मनोवृत्ति क्यों होती है ?
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इसलिये कि एक ऐसी मिथ्या दृष्टि ने जो नितान्त निन्दनीय और त्याज्य है, उन्हें चिरकाल से आक्रान्त कर रखा है । अतः जब तक इस मिथ्या दृष्टि से उनका पिण्ड नहीं छूटता तब तक उनकी इस अज्ञानदशा का अन्त होना असम्भव है, इस दृष्टि से पिण्ड छुड़ाने का उपाय क्या है ? इसका एक ही उपाय है और वह है अनेकान्तदर्शी आचार्यों की शरण में जा कर उनसे तत्त्वज्ञान की शिक्षा प्राप्त करना ।
आवृत्यनावृतिपदेऽपि समा दिगेषा
जात्यावृतौ भवति वैनयिकी कथं धीः ?
चित्रा च जातिरवयव्यपि तद्वदेव
चित्रो भवन्न तनुते भुवि कस्य चित्रम् ? ॥ ५६ ॥ जो रीति एक ही वस्तु के दृष्ट और अदृष्ट होने में तथा ज्ञायमान और अज्ञायमान होने में बनाई गई है वही उसके आवृत और अनावृत होने के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिये । अर्थात् जिस प्रकार वही वस्तु अंशभेद से ष्ट भी होती है और अदृष्ट भी होती है, ज्ञायमान भी होती है और अज्ञायमान भी होती है, उसी प्रकार अंशभेद से वही वस्तु आवृत भी हो सकती है और अनावृत भी हो सकती है । फलतः आवृतत्व और अनावृतत्व के सम्बन्ध से भी वस्तु की विरुद्ध एवं विभिन्नरूपता सिद्ध होती है ।
यदि यह कहा जाय कि जिस समय वस्तु के किसी अंश के साथ आवरण का सम्बन्ध होता है उस समय वह वस्तु अथवा उसका परिमाण नहीं आवृत