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(८२ ) किन्तु विज्ञानवादी का उक्त कथन संगत नहीं हैं क्योंकि उससे इस प्रश्न का समाधान नहीं होता कि समूहालम्बन ज्ञान के पशु और मनुष्य इन दो आकारों में परस्पर में भेद है अथवा नहीं ? यदि है तो परस्परभिन्न दो आकारों का अभेद एक ज्ञान के साथ कैसे हो सकता है ? और यदि भेद नहीं है तो "यह पशु है और यह मनुष्य" अथवा "पशु और मनुष्य एक दूसरे से भिन्न हैं" इस प्रकार उन दोनों का भिन्न रूप से ज्ञान कैसे हो सकता है ? और क्या समूहालम्बन ज्ञान के समय पशु और मनुष्य एक दूसरे के समस्त कार्य करते या कर सकते हैं ?
कहने का तात्पर्य यह है कि समूहालम्बन ज्ञान के समय भी उनके आकारों में कार्यभेदमूलक भेद होने के कारण उनका उस ज्ञान के साथ ऐक्य नहीं हो सकता, फिर जैसे समूहालम्बन ज्ञान और उनके आकारों में सहोपलम्भ का नियम होने पर भी परस्पर में ऐक्य नहीं किन्तु भेद ही है उसी प्रकार पशु, मनुष्य आदि पदार्थ और उनके असमूहालम्बन ज्ञान का नियमेन सहोपलम्भ होने पर भी उनमें अभेद नहीं हो सकता है। इस प्रकार सहोपलम्भनियमरूप हेतु समूहालम्बन ज्ञान तथा उसके आकारों में अभेद का व्यभिचारी हो जाता है। ज्ञान और ज्ञेय की एकता के मत में सहोपलम्भ-एक ज्ञान की विषयता भी उनके अभेद का साधन बन सकता है अतः नियमांश को उक्त हेतु का घटक बनाने की आवश्यकता न रहने के कारण सहोपलम्भनियम हेतु व्यर्थ विशेषण से घटित होने के कारण व्याप्यत्वासिद्ध भी हो जाता है ।
उक्त हेतुओं का पृथक-पृथक परीक्षण (१) सहोपलम्भनियम-यहाँ सहोपलम्भ का क्या अर्थ अभिमत है ?
( क ) एककालिक उपलम्भ । ( ख ) एकपुरुषीय उपलम्भ । (ग ) एककालिक एकपुरुषोय उपलम्भ । (घ ) एककारणाधीन उपलम्भ अथवा(ङ) एक उपलम्भ । इनमें कोई भी अर्थ उपयुक्त नहीं है जैसे
( क ) एककालिक उपलम्भ का नियम भिन्नकालीनता का व्यावर्तक हो सकता है न कि भिन्नस्वरूपता का, क्योंकि एककालिक उपलम्भ का नियम यदि अभेदाश्रित ही होगा तो भिन्न मनुष्यों के दो ज्ञानों में भी अभेद हो जायगा, कारण कि क्षणिक और एककालिक होने से उन ज्ञानों का उपलम्भ एक ही काल में नियत रूप से होता है ।