________________
( ६६ )
चित्रस्थले स्पृशति नैव तवोपपत्ति
कि शिरोमणिरसौ वहतेऽभिमानम् ॥ ४३ ॥
अनिर्धारण - बोधक "स्यात् " पद से घटित होने के कारण एक धर्मी में परस्पर विरोधी अनेक धर्मों का बोधक होने से सप्तभङ्गी नय प्रमाण नहीं हो सकता, इस प्रकार रघुनाथ शिरोमणि ने स्याद्वाद पर जो आक्षेप किया है, इस श्लोक के द्वारा उसकी अज्ञानमूलकता बतायी गई है ।
रघुनाथ शिरोमणि ने वस्तु तत्त्व का विवेचन करते समय न्याय, वैशेषिक के साम्प्रदायिक सिद्धान्तों के समक्ष शिर न झुकाते हुये उनके विरोध का तनिक भर भी भय न कर अनेक पदार्थ स्वीकार किये हैं, किन्तु द्रव्य की चित्रता, जिसकी उचित उपपत्ति स्याद्वाद के विना हो ही नहीं सकती, उसके विषय में स्याद्वाद को नहीं स्वीकार किया, इससे ज्ञात होता है कि उन्हें स्याद्वादशास्त्र का परिचय नहीं था, अतः उनका यह अभिमान कि वे किसी एक शास्त्र का अन्धानुगमन नहीं करते किन्तु सभी शास्त्रों का सम्यक् परिशीलन करके ही वस्तुतत्त्व का विवेचन करते हैं, सर्वथा निराधार है, क्योंकि उन्होंने यदि जैनशास्त्र का परिशीलन किया होता तो उन्हें स्याद्वाद का परिचय अवश्य होता और उस दशा में वे उसकी उपेक्षा कथमपि न करते, प्रत्युत द्रव्य की चित्रता का सुन्दर समर्थन करने के लिये उसका पूर्ण आदर करते। कहने का तात्पर्य यह है कि द्रव्य की चित्रता का समुचित उपपादन करने के लिये जैनशास्त्र का स्याद्वाद अनिवार्य रूप से उपादेय है, अतः उस पर दीधितिकार का आक्षेप असंगत तथा अज्ञानमूलक है ।
चित्र रूप के बारे में भिन्न-भिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न मत हैं, न्याय, वैशेषिक दर्शन के साम्प्रदायिक विद्वानों का कथन है कि नील, पीत आदि अनेक रूपोंसे युक्त अवयवों द्वारा जो एक द्रव्य अवयवी उत्पन्न होता है, उसमें नील, पीत आदि अनेक रूपों की उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु एक विजातीय रूप की उत्पत्ति होती है और उसी को चित्र रूप कहा जाता है ।
दीधितिकार रघुनाथशिरोमणि का मत है कि विभिन्न रूप के अवयवों से उत्पन्न होने वाले अवयवी में नील, पीत आदि अनेक रूप ही उत्पन्न होते हैं, पर वे सब उस द्रव्य में अव्याप्यवृत्ति होते हैं अर्थात् उस द्रव्य के पूरे भाग में नहीं रहते किन्तु उसके एक-एक भाग में रहते हैं, इस प्रकार एक द्रव्य में अव्यापक रूप से रहने वाले अनेक रूपों के समुदाय को ही चित्र कहा जाता है, दीधितिकार के मतानुसार उक्त रीति से एक द्रव्य में रहने वाले विभिन्न रूपों समष्टि का व्यावहार करने लिये ही चित्र शब्द का आविष्कार हुआ है ।