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भिन्न स्थान और भिन्न समय में रहने वाली वस्तु में जो अभिन्नता या एकता की ऊर्ध्वकथित प्रतीति होती है उसकी उपपत्ति न हो सकेगी। इस प्रकार घट, पट आदि पदार्थो का जो अंश स्थिर सिद्ध होता है उसका नाम द्रव्य है ।
___ वह प्रत्यक्ष प्रमाण-रूपसे तत्ता-तद्देश एवं तत्काल के साथ सम्बन्ध तथा इदन्ता एतद्देश एवं एतत्काल के साथ सम्बन्ध-इन दो रूपों से भेद और उन विभिन्न देश-कालों में सूत्र के समान अनुस्यूत द्रव्य के रूप से अभेद का प्रकाशन करता है। और वही प्रत्यक्ष नय-रूप से अभेद-मात्र का प्रकाशन करता है।
अभिप्राय यह है कि एक वस्तु के अनेक अंश होते हैं। उनमें से कुछ परस्पर विरुद्ध से लगते हैं और कुछ अविरुद्ध से। वे अंश अथवा धर्म अपने आश्रय से एकान्त भिन्न नहीं होते अपि तु अभिन्न भी होते हैं, वे प्रतिक्षण उत्पाद-विनाशशील होते हैं परन्तु उनका आश्रय-भूत वस्तु, जिसे द्रव्य कहा जाता है, स्थिर और अभिन्न होती है।
वस्तु के किसी अंश-रूप विशेष का ही ग्रहण जिस से होता है उसे नय अर्थात् प्रमाण का एक देश - कहा जाता है, तथा वस्तु के समस्त रूपों का प्रकाशन करने वाले नयसमूह को पूर्ण प्रमाण कहा जाता है। जैन दर्शन वस्तु-स्वरूप का निरूपण प्रमाण के आधार पर करता है। और दूसरे दर्शन नयको ही पूर्ण प्रमाण मान कर उसी के आधार पर वस्तु के स्वरूप का निरूपण करते हैं। ____ इस श्लोक के उत्तरार्ध में यही बात कही गयी है कि "सोऽयम्" यह प्रत्यभिज्ञा-रूप प्रत्यक्ष प्रमाण-रूप से अर्थात् अनेक नयों के सहयोग से द्रव्यात्मना वस्तु की एकता और विभिन्नधर्मात्मना उसकी अनेकता का प्रकाशन करता है । किन्तु एक नयमात्र के रूप से वस्तु की केवल एकता का प्रकाशन करता है।
सोऽयम् - इस प्रत्यभिज्ञात्मक प्रत्यक्ष के बल से देश-काल का भेद होते हुये भी वस्तु की अभिन्नता का वर्णन करने वाले नैयायिकों का कहना यह है कि-उक्त प्रतीति पूर्वकाल में स्थित वस्तु के साथ वर्तमान काल में स्थित वस्तु के अभेद का प्रकाशन करती है, यदि वस्तु की स्थायिता न मानी जायगी किन्तु उसे प्रतिक्षण में नश्वर माना जायगा तो क्रमिक दो क्षणों में रहने वाली वस्तुओं का भी अभेद न होगा और लम्वे व्यवधान वाले दो समय की वस्तुवों के अभेद की तो स्वाप्निक कल्पना भी नहीं हो सकती। अतः कथित प्रतीति की सर्वसम्मत प्रामाणिकता के रक्षणार्थ वस्तु को स्थिर मानना आवश्यक है ।