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ताप्पर्य यह है कि पदार्थों का कोई एक ही नियत स्वरूप नहीं है किन्तु वे परस्परविरुद्ध प्रतीत होने वाले अनेक रूपों के आस्पद हैं, इसलिये उनका साकल्येन परिचय स्याद्वाद से उपोद्वलित सप्तभङ्गी नय द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है, उसकी अवहेलना कर तात्पर्य आदि के भेद से वस्तु का वर्णन अनधिः कार चेष्टामात्र है।
सामान्यमेव तव देव ! तदूर्ध्वताख्यं
द्रव्यं वदन्त्यनुगतं क्रमिकक्षणौधे । एषैव तिर्यगपि दिग बहुदेशयुक्त
नात्यन्तभिन्नमुभयं प्रतियोगिनस्तु ॥ ३० ॥ इस श्लोक में महावीर स्वामी का संबोधन करते हुये ग्रन्थकार का कथन है कि हे देव ! विद्वान् गण द्रव्य पदार्थ को सामान्यरूप मानते हैं और उसे ऊर्ध्वता के नाम से पुकारते हैं। उनकी इस मान्यता का कारण यह है कि द्रव्य पदार्थ क्रम से होने वाले क्षणिक और स्थायी पर्याय समूहों में अनुगत रूप से विद्यमान रहता है।
विद्वानों का यह भी कथन है कि द्रव्यपदार्थ सामान्यरूप होने के साथ-साथ आपेक्षिक भी है, अर्थात् जो पदार्थ किसी एक वस्तु की अपेक्षा द्रव्यरूप है वही दूसरे की अपेक्षा अद्रव्यरूप होता है और जो किसी एक की अपेक्षा अद्रव्यरूप है वही दूसरे की अपेक्षा द्रव्यरूप भी है जैसे मृत्तिका घट की अपेक्षा द्रव्य है और पट की अपेक्षा अद्रव्य है। इसी प्रकार घट घट, पट आदि की अपेक्षा अद्रव्यरूप है पर अपने रूप, स्पर्श आदि गुणों को अपेक्षा द्रव्यरूप है।
द्रव्य की यह आपेक्षिकता न्याय आदि दर्शनों में भी मानी गई है, क्योंकि न्याय, वैशेषिक दर्शनों में समवायिकारणता को द्रव्य का लक्षण बताया गया है, और कारणता कार्यसापेक्ष होने के नाते कार्य के भेद से भिन्न होती है, इस लिये जिस कार्य की समवायिका रणता जिसमें रहती हैं अर्थात् जो कार्य जिसमें समवाय सम्बन्ध से उत्पन्न होता है वह उस कार्य की अपेक्षा द्रव्य है और द्रव्य की अपेक्षा अद्रव्य है । __द्रव्य के समान पर्याय भी आपेक्षिक होता है, अर्थात् एक ही वस्तु किसी की अपेक्षा पर्यायरूप और किसी की अपेक्षा अपर्यायरूप होती है। जैसे घट मृत्तिका की अपेक्षा पर्याय और सूत की अपेक्षा अपयोयरूप है। इस प्रसङ्ग में यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि न तो सब द्रव्य पर्यायरूप होते हैं और न सब पर्याय द्रव्यरूप होते हैं, जैसे परमाणु द्रव्यरूप ही होते हैं पर्यायरूप नहीं होते, और रूप स्पर्श आदि पदार्थ पर्यायरूप ही होते हैं द्रव्यरूप नहीं होते।