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( ६८ ) कुण्डलत्व नहीं है, इस प्रकार एक दूसरे के अभाव के आश्रय में रहने वाले कुण्डलत्व और सुवर्णत्व का स्वर्णमय कुण्डल में अस्तित्व है। __यदि यह कहा जाय कि सुवर्णत्व जाति से न सही, सुवर्णत्व नामक अखण्ड उपाधि से ही उक्त अनुभव की उपपत्ति हो जाने से सुवर्ण नामक एक स्थायी द्रव्य की सिद्धि का मार्गावरोध होगा, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि एकाकार प्रतीतियों के बल से प्रतिष्ठित होने वाले धर्म को 'उपाधि' इस नामान्तर से स्वीकार कर लेने पर अन्य युक्तियों से भी सिद्ध होने वाले अनुगत धर्मों को उपाधि की कक्षा में निहित कर देने से जातिपदार्थ का उच्छेद हो जायगा, अतः जातिवादी को उपाधि-स्वीकार को अपसिद्धान्त ही घोषित करना होगा, और जो सांकर्य सुवर्णत्व को जाति से बहिभूत कर देता है वह उसे उपाधि की श्रेणी से पृथक करने में संकोच क्यों करेगा ? सांकर्य का जातित्व से ही वैर है उपाधित्व से नहीं यह तो केवल कल्पना-मात्र है, क्योंकि जो उपाधियां जाति का प्रतिनिधित्व करेंगी उन्हें जाति के वैरियों से वैर और मित्रों से मित्रता करनी ही होगी।
इस प्रकार यह निश्चित बात है कि कुण्डल और अङ्गद आदि विभिन्नकालिक पर्यायों में होने वाले सुवर्णभाव के अनुभव का उपपादन सुवर्णत्व नाम की जाति या उपाधि से नहीं हो सकता, इस लिये उक्त अनुभव के समर्थनार्थ उन विभिन्न पर्यायों में एक अनुगत स्थायी सुवर्णद्रव्य का अङ्गीकार अनिवार्य है।
ऐसी स्थिति में इस एकान्त सत्य का अनुभव करते रहने पर भी जो लोग हे भगवन् , आप का आश्रय नहीं स्वीकार करते उनका यह उत्कट अभाग्य है।
स्वद्रव्यतां यदधिकृत्य तदात्मभावं
गच्छत्यदः कथमहो परजात्यभिन्नम् | तात्पर्यमेदभजना भवदागमार्थः स्याद्वा
दमुद्रितनिधिः सुलभो न चान्यैः ॥ २९ ॥ जो पदार्थ स्वद्रव्यता के द्वारा तादात्म्य को प्राप्त करता है वह परजातितिर्यक्सामान्य के द्वारा तादात्म्य को कैसे प्राप्त कर सकता है ? अर्थात् स्वद्रव्यतामूलक तादात्म्य का प्रतिनिधित्व एकजातीयता को नहीं प्राप्त हो सकता। ____ कहने का आशय यह है कि "जो कुण्डल था वह अङ्गद बन गया" इस प्रकार क्रम से कुण्डल और अङ्गद का आकार प्राप्त करने वाले पदार्थ में जो