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को पाकर ही करेगा, और यही न्याय उपकारान्तर के बारे में भी लागू होगा, अतः इस पद्धति से भी उपकार-कल्पना में अनवस्था प्रसक्त होगी।
( ३ ) सहकारि-कृत उपकार अपने आश्रयभूत कारण से अभिन्न नहीं माना जा सकता, क्योंकि अभिन्न मानने पर आश्रयभूत कारण के रूप से वह सहकारियों के सन्निधान से पहले भी रहेगा, अतः सहकारी के सन्निधान की अपेक्षा न होगी। और यदि उसे आश्रयभूत कारण से भिन्न माना जायगा तो उसके जन्म से भी कारण में कोई वैशिष्ट्य न होने के नाते कोई लाभ न होगा। इस दोष के परिहारार्थ यदि उपकार को भी उपकारान्तर का जनक माना जायगा तो उपकारान्तर में भी इसी न्याय के प्रवृत्त होने से पुनः उपकारकल्पना में अनवस्था का प्रसङ्ग होगा।
बौद्ध के कथनानुसार क्षणिकपक्ष में ये दोष नहीं होते, क्योंकि सहकारियों की अपेक्षा का प्रयोजन है कारणों के परस्पर-साहित्य-परस्पर-योग से कार्य का जनन करना, अतः प्रयोजनानुपपत्ति दोष नहीं है । अपेक्षा पदार्थ की अनिर्वचनीयता का भी दोष नहीं है क्योंकि एक कारण में कारणान्तर की अपेक्षा का अर्थ है कारणान्तर का साहित्य, और यह कारण का स्वभाव है। तात्पर्य यह है कि क्षणिकपक्ष में कार्य का उत्पादन करने वाले व्यक्ति ही उस कार्य के कारण माने जाते हैं; और जो अनुत्पादक होते हैं वे उत्पादक के सजातीय होने पर भी कारण नहीं माने जाते, अतः जिस कार्य के जितने कारण होते हैं वे सब एकत्र होकर कार्य को उत्पन्न करते हैं-यही कारणों का स्वभाव है और यही कारणों की परस्पर-सापेक्षता का अर्थ है। इस मत में योगपद्य युगपत् कार्यकारित्व ही वस्तु-स्वभाव के रूप में माना जाता है । ___इतने वाग्विस्तार का निष्कर्ष यही है कि क्षणिक में क्रम-योगपद्याभाव नहीं है किन्तु स्थायी वस्तु में हैं, अत; व्यापकाभाव से व्याप्याभाव के अनुमान की प्रणाली से क्रययोगपद्याभाव से सत्ताऽभाव का साधन स्थायी पदार्थ में होगा और फलतः विश्व की क्षणिकता सिद्ध होगी।
इस बौद्ध-वाद के उत्तर में नैयायिक का समाधान यह है कि जैसे सत्ता और क्षणिकता के सहचार के भूयोदर्शन का स्थल न मिलने से अन्वयव्याप्तिकाअनिश्चय-व्याप्त्यसिद्धिरूप दोष होता है वैसे ही क्रमयोगपद्याभाव और सत्ताऽभाव के सहचारका भी दर्शन-स्थल न होने से व्यतिरेकव्याप्ति अर्थात् क्रमयोगपद्याभाव में सत्ताऽभाव की व्याप्ति की भी असिद्धि होगी।
इस अनुमान में उक्त दोष से अतिरिक्त दोष भी है, और वह है पक्ष में