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स्वभाव के मध्य में आ जाते हैं अतः कारण में इन दोनों अंशों का अस्तित्व सर्वदा मानना होगा. क्यों कि कोई पदार्थ अपने स्वभाव का त्याग कर नहीं रहता । फलतः कोई कारण कभी भी कार्य का अनुत्पादक न हो सकेगा।
दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है क्यों कि उस पक्ष में सहकारी का असन्निधान और सहकारी के असन्निधान में कार्य को उत्पन्न न करना ये दोनों अंश कारणस्वभाव के मध्य में प्रविष्ट हैं । अतः कारण इन दोनों अशों से रहित कभी नहीं हो सकता, क्यों कि वस्तु का स्वभाव-शून्य होकर रहना वस्तु-मर्यादा के विरुद्ध है । फलतः कोई कारण कभी भी सहकारी का सन्निधान पाकर कार्य को उत्पन्न न कर सकेगा।
सहकारियों के सन्निधान में कार्य को करना और उनके असन्निधान में कार्य को न करना ये दोनों ही कारण के स्वभाव हैं-यह बात भी ठीक नहीं मानी जा सकती, क्यों कि ये दोनों धर्म एक दूसरे के विरोधी हैं अतः एक व्यक्ति में इन दोनों का समावेश हो ही नहीं सकता, फिर इन दोनों को एक का स्वभाव मानना तो नितान्त असंगत है।
स्वभाव का तीसरा प्रकार भी मानने योग्य नहीं है, क्यों कि वस्तु अपने स्वभाव का परित्याग कभी नहीं करती। अतः कारण में सहकारि-कृत उपकार और उसके द्वारा कार्य की उत्पादकता सर्वदा माननी होगी। फलतः कोई भी कारण कभी सहकारि-कृत उवकार से हीन तथा कार्य का अनुत्पादक न होगा।
इस तीसरे स्वभाव के स्वीकार-पक्ष में इस दोष से अतिरिक्त दोष भी है और वह है कई प्रकारों से अनवस्था का प्रसङ्ग । जैसे
(१) कारण जिस प्रकार अपने प्रसिद्ध कार्य के जनन में सहकारी का साहाय्य चाहता है उसी प्रकार वह स्वगत उपकार के जनन में भी सहकारी का साहाय्य चाहेगा । अन्यथा सब काल में उपकार के जन्म की आपत्ति होगी। सहकारी भी जैसे उपकार द्वारा कार्य के जनन में कारण के सहायक होते हैं उसी प्रकार उपकार के जनन में भी उपकार-द्वारा ही सहायक होंगे, यही न्याय दूसरे उपकार के जनन में भी उपकार द्वारा ही सहायक होंगे, यही न्याय दूसरे उपकार के जनन में भी लगेगा, इस प्रकार उपकार-कल्पना में अनवस्था
होगी।
(२) कारण जैसे सहकारि-जन्य उपकार को पाकर ही अपने प्रसिद्ध कार्य का जनन करता है वैसे ही उपकार का जनन भी सहकारि-कृत उपकारान्तर