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( ४३ ) यन्न त्वदीयनयवानगरीगरीय
__ चित्रस्वभावसरणी भयतो निवृत्तिः ॥ २० ॥ क्रम और योगपद्य अर्थात् क्रमकारित्व-एक कार्य करने के बाद दूसरा कार्य करना, युगपत्कारित्व-अपने सभी कार्यों को एक ही साथ करना, ये हो दो कार्यकारिता के प्रकार हो सकते हैं। इनमें से कोई भी प्रकार स्थायी पदार्थ में सम्भव नहीं है, अतः स्थायी पदार्थ में कार्यकारिता अर्थात् सत्ता नहीं मानी जा सकती। क्षणिक पदार्थ में योगपद्य अर्थात् अपने सभी कार्यों को एक ही साथ करना सम्भव है, अतः उसीमें कार्यकारिता अर्थात् सत्ता का स्वीकार उचित है। यह बौद्ध-कथन संगत नहीं है, क्योंकि स्थायी पदार्थ में क्रमकारिता मानने में कोई दोष नहीं है अतः क्रमयोगपद्याभाव से उसमें सत्ता का अभाव नहीं सिद्ध हो सकता।
ग्रन्थकार तीर्थकर को सम्बोधित करते हुये कहता है कि हे भगवन् ! वस्तुतः सत्ता न सर्वथा स्थायी पदार्थ में सुरक्षित हो सकती और न सर्वथा क्षणिक पदार्थ में, किन्तु तुम्हारी नयवाणी की नगरी के श्रेष्ठ चित्रस्वभाव-रूपी राजमार्ग पर स्याद्वाद के महारथ में अर्थात् कथंचित् स्थायी और कथंचित् क्षणिक रूप से स्वीकृत अनेकान्तात्मक पदार्थ में ही सुरक्षित हो सकती है, अतः वस्तु को न एकान्त स्थिर ही मानना चाहिये और न एकान्त क्षणिक ही किन्तु उभयात्मक मानना चाहिये ।
क्षणिकवादी बौद्ध का तात्पर्य यह है कि सत्ता अर्थक्रियाकारिता अर्थात् कार्यजनकता-रूप है, अतः कार्यजनक वस्तु की ही सत्ता स्वीकार्य है। स्थायी वस्तु में कार्यजनकता नहीं हो सकती अतः उसकी सत्ता अमान्य है। स्थायी वस्तु के कार्यजनक न होने का कारण यह है कि कार्यजनकता के दो ही प्रकार हो सकते हैं, क्रमकारिता-एक कार्य करने के बाद दूसरा कार्य करना, अथवा युगपत्कारिता-अपने सभी कार्यों को एक ही साथ करना । इनमें दूसरा प्रकार तो क्षणिक ही वस्तु में रह सकता है-स्थायी में नहीं, क्योंकि जब वस्तु अपने सभी कार्यों को एक ही साथ करेगा तो अपने पहले कार्य के समय ही अपने सब कार्यों को कर डालेगा अर्थात् वस्तुजन्म के दूसरे क्षण में ही उसके सार कार्य सम्पन्न हो जायगे, फिर जब तीसरे क्षण में उसका कोई कार्य होने को बाकी ही नहीं तो दूसरे क्षण में उसका अस्तित्व मानने की आवश्यकता ही क्या ? क्योंकि कार्य-जन्म के पूर्व-क्षण में कारण की सत्ता माननी पड़ती है, और दूसरा क्षण कार्यजन्म का पूर्व क्षण नहीं है किन्तु वही सभी कार्यों का जन्मक्षण है।