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( २१ ) किसी कार्य के प्रति भी कारण नहीं होगा, उस दशा में बीजत्वरूप से बीज की सत्ता का ही लोप हो जायगा, क्यों कि बौद्धमत में अर्थ-क्रियाकारिता ही सत्ता का लक्षण है अतः जो जिस रूप से किसी कार्य का कारण होता हैं उसी रूप से उसकी सत्ता हो सकती है, इसलिए कुर्वद्रूपत्व की कल्पना बौद्ध के बुद्धिमान्द्य या प्रमाद का सूचक होगी, क्योंकि बीज का जो रूप प्रत्यक्ष सिद्ध है उस रूप से उसका असद्भाव और जो रूप किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो पाता उस रूप से उसका सद्भाव उसे मान्य करना होगा।
अंकुर के समान अन्य कार्यों के प्रति भी बीज को बीजत्व रूप से कारणता न होगी इस विषय को समझने के लिये निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिये । अंकुर से भिन्न जिन कार्यों के प्रति बीजत्व रूप से बीज को कारण होने की सम्भावना की जा सकती है वे ये हैं, (१) कार्यमात्र (२) बीजमात्र (३) बीजानुभव (४) बीजनाश (५) अतीन्द्रिय कोई कार्य ।
इनमें पहला पक्ष नहीं माना जा सकता क्योंकि बीज न रहने पर भी अन्य कारणसमूहों से कार्यों का जन्म होता है। जैसे सूत, जुलाहे आदि से कपड़े का निर्माण । ___दूसरा पक्ष भी मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि बीज को बीज का कारण मानने पर अंकुरकारी बीज से भी अंकुर का जन्म न होकर बीज के ही जन्म का प्रसङ्ग होगा। एवं उत्पादक बीज का अभाव रहने से पहले बीज की उत्पत्ति न हो सकने के कारण बीजपरम्परा अस्तित्व में ही न आ सकेगी। ___ तीसरा पक्ष भी गाह्य नहीं हो सकता, क्योंकि बीज न रहने पर भी योगी को उसका प्रत्यक्ष अनुभव होता है ।
चौथा पक्ष भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि बौद्धमत में अनन्तरभावी भावात्मक कार्य से अतिरिक्त नाश का अस्तित्व ही नहीं है।
कुछ नियन्त्रण लगा कर पांचवे पक्ष को स्वीकार किया जा सकता है, किन्तु उस पक्ष का स्वीकार बौद्धों के विशेष मतिमान्द्य का ही द्योतक होगा, क्योंकि अङ्कर आदि दृश्य कार्यो में अदृश्य कुर्वद्रूपत्वरूप से और अदृश्य कल्पित कार्य के प्रति दृश्य बीजत्वरूप से बीज की कारणता बौद्ध को माननी पड़ जायगी। और यह होगा नितान्त अप्रामाणिक । __अङ्करसामान्य के प्रति बीजत्वरूप से बीज को कारण न मानने पर अङ्करसामान्य को आकस्मिकता भी प्राप्त होगी। जो इष्ट नहीं है। अर्थात् यह नियम है कि जिन कारणों के सन्निधान में जिस कार्य के उत्पन्न होने का निश्चय होता है उस कार्य के लिये उन्हीं कारणों को एकत्र करने में मनुष्य की