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उत्पादकता का अभाव है, अर्थात् एक ही काल में देशभेद से उक्त भावाभावात्मक धर्मो का अस्तित्व है।
इस पर स्थैर्यवादी का कथन यह है कि जैसे एक ही काल में देशभेद से उक्त दोनों धर्मों का अस्तित्व है, उसी प्रकार एक ही बीज-देश में कालभेद से उन धर्मों का अस्तित्व मानने में कोई बाधा नहीं है । अर्थात् जिस बीज में सहकारियों के सन्निधानकाल में अङ्करकरण-अङ्कर की उत्पादकता है उसी बीज में सहकारियों के असन्निधानकाल में अङ्कराकरण-अङ्कर की अनुत्पादकता है, ऐसा मानने में कोई हानि नहीं है । इस प्रकार उन दोनों धर्मों में परस्पराभावरूपतामूलक विरोध का अभाव सिद्ध होता है ।
परस्पराभावापादकतामूलक विरोध भी उन दोनों धर्मों में नहीं माना जा सकता, क्योंकि तत्कार्यकरण तत्कार्याकरण का अभावरूप है और तत्कार्याकरण तत्कार्यकरण का अभावरूप है । एक वस्तु में व्याप्यव्यापकभाव होता है पर आपाद्य-आपादकभाव नहीं होता, अतः वे दोनों धर्म एक दूसरे का अभावरूप होने से उसका व्याप्य होने पर भी उसका आपादक नहीं हो सकते । इस प्रकार जब वे दोनों धर्म परस्पराभाव के आपादक नहीं होते तो परस्पराभाव की आपादकता के कारण परस्पर विरुद्ध कैसे हो सकते हैं ? ___ यदि तत्कार्यकरण और तत्कार्याकरण को परस्पराभावरूप न माना जाय तो एक दूसरे के अभाव का व्याप्य और आपादक हो सकता है किन्तु विरोधी फिर भी नहीं हो सकता । क्योंकि तत्कार्यकरण स्वयं जिस काल में जहाँ रहेगा उसी काल में वहाँ तत्कार्याकरण के अभाव का आपादन करेगा। फलतः एक काल में एक स्थान में उन दोनों धर्मों का अस्तित्व नहीं होगा किन्तु कालभेद से एक स्थान में उन दोनों धर्मो के रहने में कोई बाधक नहीं होगा। इसलिये उन दोनों धर्मों में सर्वथा एक स्थान में न रहना, ऐसा विरोध नहीं हो सकता। हाँ, एक काल में एक स्थान में न रहना इस प्रकार का विरोध सम्भव है, किन्तु वैसे विरोधी धर्मों का अस्तित्व एक व्यक्ति में स्थैर्यवादी भी नहीं मानते ।
परस्परभिन्नतामूलक विरोध मानने में कोई हानि नहीं है। क्योंकि जिन' धर्मों मे उस प्रकार से विरोध होता है। उनके आश्रय व्यक्तियों में परस्पर में वैधर्म्य-विभिन्नधर्ममात्रता की सिद्धि होती है न कि परस्परभेद की। अतः तत्कार्यकरण और तत्कार्याकरण इन विरोधी धमों के सम्बन्ध से उनके आश्रयों में भेद का साधन असम्भव है। हाँ, भेद को अव्याप्यवृत्ति मानने पर अर्थात् अभिन्न में भी कथंचित् भेद का अस्तित्व मानने पर दण्डविशिष्ट में कुण्डल