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प्रवृत्ति होती है, ऐसी स्थिति में यदि बीजसामान्य को अङ्करसामान्य का कारण न माना जायगा तो बीज आदि अमुक-अमुक कारणों के सन्निधान में अङ्करसामान्य की उत्पत्ति होती है ऐसा निश्चय न हो सकने के कारण अंकुरसामान्य को उत्पन्न करने की इच्छा से बीज आदि वस्तुओं के एकत्रीकरण में मनुष्य की प्रवृत्ति न होगी। फलतः अङ्करसामान्य का जन्म आकस्मिक अर्थात् अव्यवस्थित हो जायगा। __यही सब कारण हैं जिनसे इस पद्य के अन्तिम भाग में बौद्ध की अप्रामाणिक तथा अनेकदोषग्रस्त कुर्वद्रूपत्व की कल्पना पर खेद और आश्चर्य प्रकट किया गया है।
आकस्मिकत्वमपि तस्य भयाय न स्यात्
स्याद्वादमन्त्रमिह यस्तव बम्भणीति । यत्साधनं यदपि बाधनमन्यदीयाः
कुर्वन्ति तत् तव पितुः पुरतः शिशुत्वम् ॥ १२॥ हे भगवन् , जो व्यक्ति इस विचार में तुम्हारे स्याद्वाद मन्त्र का प्रयोग विशेषरूप से करता है उसे कार्यसामान्य के आकस्मिक हो जाने का भी भय नहीं होता, क्योंकि विभिन्न दृष्टियों से कार्य की आकस्मिकता और अनाकस्मिकता दोनों ही इष्ट हैं । ऐसी परिस्थिति में स्याद्वाद के महत्त्व को जाननेवाले लोग जो किसी एक विचार का समर्थन और अन्य विचार का खण्डन आविष्ट भाव से करते हैं, उनका वह कार्य, हे भगवन् ! आपके सामने ठीक वैसा ही है जैसा पिता के सामने बालक का विनोद ।
जैसे बालक पिता के सामने बड़े श्रम से धूलि का गृहनिर्माण करते और वाद में आपस में झगड़ कर उसे तोड़ डालते हैं, पर पिता उनकी इन क्रियाओं से उन्हें अपराधी समझ दण्ड नहीं देता । उसी प्रकार वस्तुओं के विभिन्न अनन्त धर्मों का समर्थन करने वाले स्याद्वाद के मर्मज्ञ जैनशासन के प्रवर्तक तीर्थङ्कर की दृष्टि में वस्तु के किसी धर्मविशेष का अभिनिविष्ट होकर समर्थन करनेवाले लोग भी अपराधी नहीं गिने जाते, क्योंकि वे वस्तु के जिन धर्मों का प्रतिपादन करने के लिए एकाङ्गी विचारों का बड़े आग्रह से समादर करते हैं वे स्याद्वाद की दृष्टि में अनुचित नहीं हैं।
पूर्व कारिका की व्याख्या के अन्तिम भाग में बौद्धमत में अङ्करसामान्य के आकस्मिक हो जाने की जो आपत्ति बतायी गयी है उसके प्रतिबन्दी रूप में बौद्ध स्थैर्यवादी के प्रति यह कहते हैं कि स्थैर्यवाद में भी तत्तत् अंकुर का जन्म आकस्मिक हो जायगा । उनके कथन का अभिप्राय यह है कि जैसे अङ्करसामान्य