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बीज सामान्य में अङ्कुरार्थी कृषक की प्रवृत्ति के उपपादनार्थ बीजसामान्य को अङ्कुर का कारण मानना आवश्यक है ।
बौद्ध का वक्तव्य -
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संसार में दो प्रकार के बीज पाये जाते हैं, एक सहकारियों से युक्त और दूसरे उनसे वियुक्त । कुसूल आदि रक्षास्थानों में रखे हुए बीज सहकारियों से वियुक्त रहते हैं और क्षेत्र में बोये हुये बीज उनसे युक्त होते हैं । अङ्कुर जनन का सामर्थ्य सहकारियुक्त बीजों में ही मानना उचित है न कि सहकारिवियुक्त बीजों में, क्योंकि उन्हें यदि अङ्कुर के प्रति समर्थ माना जायगा और अङ्कुर का उत्पादक न माना जायगा तो ' समर्थ कारण अपना कार्य करने में विलम्ब नहीं करता” इस नियम का विरोध होगा. और यदि उन्हें अङ्कुर का उत्पादक मान लिया जायगा तो सहकारियों के विना ही कार्यका जन्म हो जाने से उनकी कारणता का भङ्ग होगा ।
सहकारियों के सन्निधान के लिये भी यह नियम मानना आवश्यक है कि वह अङ्कुर के प्रति असमर्थ वस्तुवों में नही होता, यदि उसे असमर्थं वस्तु में भी माना जायगा और अङ्कुर की उत्पत्ति न मानी जायगी तो सहकारियों की कारणता का भङ्ग होगा क्योंकि सामर्थ्यशाली सहकारियों के होते हुए भी अङ्कुर की उत्पत्ति नहीं होती, और यदि अङ्कुर की उत्पत्ति मान ली जायगी तो बीज की कारणता की हानि होगी क्योंकि उसके विना भी अङ्कुर की उत्पत्ति हो जाती है ।
इसी प्रकार यह भी नियम मानना होगा कि अङ्कुर के प्रति समर्थ बीज कभी भी सहकारियों से असन्निहित नहीं होता, क्योंकि यदि समर्थ बीज को भी सहकारियों से असन्निहित माना जायगा और अङ्कुर की उत्पत्ति न मानी जायगी तो समर्थ कारण अपने कार्य को पैदा करने में नियम का विघात होगा और यदि अंकुर की उत्पत्ति सहकारियों की कारणता का भङ्ग होगा क्योंकि उनके उत्पत्ति हो आती है ।
विलम्ब नहीं करता इस मान ली जायगी तो बिना भी अंकुर की
अङ्कुरसमर्थं बीज सहकारियों से युक्त ही होते हैं, यह जो बात माननी पड़ती है उसकी उपपत्ति बीजत्वरूप से सभी बीजोंको अङ्कुर का कारण मानने पर नहीं हो सकती क्योंकि ऐसा मानने पर कारण की ही समर्थ संज्ञा होने के नाते कुसूलस्थित बीज समर्थ की श्रेणी में आ जायगा जो कुसुल में रहते समय सहकारियों से असन्निहित होने के कारण अङ्कुर को नहीं पैदा करता, अत: अङ्कुर को पैदा करने वाले सहकारियों से युक्त बीजों में कुर्वद्रूपत्व नाम की