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( १६ ) जाति मानकर उस रूप से ही बीज को. अङ्कर के प्रति कारण मानना उचित है।
उस कुर्वद्रूपत्व से युक्त बीज को- क्षणिक मानना होगा अन्यथा यदि उसे स्थायी माना जायगा तो अपनी स्थिति के सभी क्षणों में अङ्कर का जनन न करने के कारण उसे सहकारी से असन्निहित भी मानना होगा। और ऐसा मानने से समर्थकारण अपना कार्य करने में विलम्ब नहीं करता इस नियम का विघात कुर्वद्रुपत्व की कल्पना से भी न रोका जा सकेगा।
इसलिये ऊपर लिखी गयी बातों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि कुर्वद्रूपत्व से युक्त बीज ही अङ्कर का कारण है तथा वह सहकारियों से युक्त
और क्षणिक है। कुर्वद्रूपत्व के विषय में बौद्ध और नैयायिकों के मतों में भेद इतना ही कहा जा सकता है कि बौद्ध के मत में वह अपोह-अतव्यावृति-रूप होने से अभावात्मक है और नैयायिक के मत में भावात्मक ।
उक्त वक्तव्य का खण्डन
कुर्वद्रूपत्व के बल से बीज आदि वस्तुओं की क्षणिकता का साधन नहीं किया जा सकता क्योंकि वह स्वयं प्रत्यक्ष या अनुमान से नहीं सिद्ध होता। उसकी अप्रत्यक्षता तो तद्विषयक विवाद से ही सिद्ध है और अनेक दोषों से ग्रस्त होने के कारण अनुमान भी उसके साधन में असमर्थ है क्योंकि अनुमान में उसे पक्ष करने पर आश्रयासिद्धि और साध्य करने पर व्याप्यस्वासिद्धि होगी। इसके अतिरिक्त उसकी सिद्धि में दूसरा बाधक यह है कि यदि कूर्वद्रूपत्व से युक्त बीजों को ही अङ्कर का कारण माना जायगा और उसकी सत्ता सहकारियों से असन्निहित बीजों में न मानी जायगी तो कुसूल आदि स्थानों में रखे हुए बीज अङ्कर के कारण न होंगे, फलतः उनमें अङ्कर की कारणता का ज्ञान न हो सकने से अङ्करार्थी कृषक की उनके ग्रहण और संरक्षण में प्रवृत्ति न होगी क्योंकि प्रवृत्ति के प्रति इष्ट वस्तु की कारणता का ज्ञान आवश्यक माना गया है। अतः सहकारि-शून्य बीजादि के संरक्षण में प्रवृत्ति के उपादनार्थ बीजसामान्य को अङ्कर के प्रति कारण मानना उचित है। इस प्रकार की कारणता मानने में यह जो बाधक बताया गया था कि ऐसा मानने पर समर्थकारण अपने कार्य को करने में विलम्ब नहीं किया करता-इस नियम का विधात होगा, वह ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त नियम वाक्यमें आये हुए समर्थ शब्द का अर्थ सहकारिसम्पन्न है ।
अतः नियम का आकार यह होता है कि सहकारी कारणों से युक्त कारण अपने कार्य के जनन में बिलम्ब नहीं करता, और इसकी उपपत्ति बीजसामान्य को