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30...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन इस सन्मार्ग का अनुसरण नहीं किया तो पुन: ऐसा बोध प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। इस प्रकार का चिन्तन करना बोधिदुर्लभ भावना है। उत्तराध्ययनसूत्र में चार वस्तुओं की उपलब्धि अत्यन्त दुर्लभ कही गयी है-मनुष्यत्व की प्राप्ति होना, धर्म का श्रवण करना, धर्म पर शुद्ध श्रद्धा करना और संयम मार्ग में पुरुषार्थ करना।103
लाभ-इस भावना के अनुचिन्तन से बोधिलाभ होता है और उससे प्रमाद का स्वत: परिहार हो जाता है।
12. धर्म भावना- वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमा आदि धर्म के दस भेद हैं। जीवों की रक्षा करना धर्म है। रत्नत्रय की आराधना करना धर्म है। इसी तरह धर्म के स्वरूप और उसकी आत्मविकास की शक्ति का विचार करना धर्मभावना है। ___यह धर्म निःश्रेयस को प्राप्त कराने वाला है, चिन्तामणि, कामधेनु और कल्पवृक्ष से बढ़कर सब कुछ प्रदान करने वाला है, यह देवता को भी वश में कर लेता है। इस प्रकार सूक्ष्म स्वरूप का विचार करना ही धर्म भावना है।
लाभ-धर्म के गुणों की अनुप्रेक्षा करने से स्वीकृत मोक्षमार्ग की सम्यक आराधना होती है।
वस्तुत: जो आत्मा बार-बार इन भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित करता है उसके कषाय क्षीण हो जाते हैं, आधि और उपाधि शान्त हो जाती है, अन्तःकरण शुद्ध होकर शाश्वत ज्ञान का प्रकाश जगमगाने लगता है। भावना के अन्य प्रकार
मुख्य रूप से भावना प्रशस्त-अप्रशस्त दो प्रकार की होती है।
प्रशस्त- आवश्यकनियुक्ति में प्रशस्त भावना के पाँच प्रकार की निर्दिष्ट हैं- दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वैराग्य।104 अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाएँ, वैराग्य भावना है। पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ, चारित्र भावना है। स्थानांगसूत्र में चारित्र की विशुद्धि हेतु धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान की चारचार अनुप्रेक्षाएँ बताई गई हैं। धर्म ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं-1. एकत्वानुप्रेक्षा 2. अनित्यानुप्रेक्षा 3. अशरणानुप्रेक्षा 4. संसारानुप्रेक्षा। शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं-1. अनन्तवर्तित अनुप्रेक्षा 2. विपरिणामानुप्रेक्षा 3. अशुभानुप्रेक्षा 4. अपायानुप्रेक्षा।105