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वर्षावास सम्बन्धी विधि-नियम... .293
उल्लंघन नहीं करना चाहिए। यह वर्षावास स्थापना की मूल विधि है ।
चरम तीर्थाधिपति भगवान महावीर भी वर्षाऋतु के एक मास और बीस दिन-रात (50 दिन) पूर्ण होने पर वर्षावास हेतु अवस्थित हुए थे। इस वर्णन से इस बात की पुष्टि होती है कि वर्षावासी मुनि पचास दिन तक उपयुक्त वसति की गवेषणा के लिए इधर-उधर आ-जा सकता है, किन्तु भाद्र शुक्ला पंचमी के दिन उसे जो स्थान प्राप्त हो, वर्षावास के परवर्ती 70 दिनों तक उसे वहीं रहना होता है। इसे पर्युषणा कहते हैं। यदि कोई स्थान न मिले तो वृक्ष के नीचे स्थित हो जाना चाहिए।
आज वर्षावास स्थापना का मौलिक स्वरूप बदल चुका है। सामान्यतया चातुर्मास आने के महीनों या वर्षों पहले वर्षाकल्प का क्षेत्र निश्चित हो जाता है, वर्षावास की मौखिक स्वीकृति भी प्रदान कर दी जाती है तथा विशेष आग्रही एवं भावनाशील प्रान्त या देश को ध्यान में रखते हुए विहार का कार्यक्रम भी निश्चित कर लिया जाता है, ऐसी स्थिति में वर्षावास स्थापना का शास्त्रोक्त पालन किस तरह संभव हो सकता है ?
दूसरा उल्लेखनीय तथ्य यह है कि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक की लगभग सभी परम्पराओं में आचार्य कालिक के समय के बाद से चातुर्मास की स्थापना पूर्णिमा के दिन न करके चतुर्दशी के दिन की जाती है। क्योंकि उनके शासन काल में एक बार संवत्सरी पर्व की आराधना पंचमी को बाधित कर चौथ के दिन की गई थी।
घटना यह है कि जब मालवा देश पर शातवाहन राजा का आधिपत्य था तो कालिकाचार्य विचरण करते हुए उस प्रान्त में पहुँचे। एक दिन उन्होंने महाराजा शातवाहन से कहा कि ' भाद्र मास में शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को पर्युषणा (संवत्सरी) है।' राजा ने कहा, 'आर्य! उस दिन मेरे इन्द्र महोत्सव होता है अतः उस दिन चैत्य और साधु पर्युपासित नहीं होंगे यानी जिन मन्दिरों, पौषधशालाओं एवं उपाश्रयों में सांवत्सरिक उपासना नहीं हो सकती, इसलिए पंचमी तिथि के स्थान पर छठ के दिन पर्युषणा हो । आचार्य ने कहा कि तिथि का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। राजा ने कहा कि यदि ऐसा है तो चतुर्थी के दिन पर्युषणा हो जाए । आचार्य ने कहा कि ऐसा हो सकता है। इस प्रकार चतुर्थी को पर्युषणा की आराधना की गई। इस तिथि का निर्णय उस समय