Book Title: Jain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 457
________________ महापरिष्ठापनिका (अंतिम संस्कार) विधि सम्बन्धी नियम... 395 इस प्रकार विक्रम की 15वीं शती पर्यन्त के ग्रन्थों का अवलोकन करने से इतना सुनिश्चित हो जाता है कि इस काल तक शव परिष्ठापन की मूल विधि पूर्ण अस्तित्व में थी तथा गृहस्थ द्वारा अग्नि संस्कार की प्रक्रिया का उद्भव हो चुका था। तदनन्तर परिष्ठापन विधि कब व्युच्छिन्न हुई एवं अग्नि संस्कार को प्रधानता कब मिली, प्रामाणिक सामग्री के अभाव में कुछ कहना असंभव है किन्तु इतना सुस्पष्ट है कि वर्तमान में अग्नि संस्कार - विधि की जाती है। यदि इस पहलू पर सामाजिक दृष्टिकोण से मनन करें तो सहजतया प्रश्न उभरता है कि जब श्रमण का समग्र जीवन स्वार्थ- परमार्थ के लिए ही अर्पित है तब मृतावस्था के पूर्व यदि वह अपने नेत्रदान, देहदान, अंगदान के विषय में घोषणा कर दें तो अनेकान्तिक दृष्टि से उचित है या अनुचित ? विद्वज्जन इस बिन्दु पर अवश्य विचार करें। मेरी व्यक्तिगत धारणा के अनुसार लोक कल्याण एवं सामाजिक सेवा की दृष्टि से देह अंग एवं नेत्र का दान करना किसी सीमा तक उपयुक्त और सार्थक है। यदि शव परिष्ठापन की उपयोगिता के सम्बन्ध में सोचा जाए तो भौतिकवादी युग में इस संस्कार की प्रासंगिकता न्यूनतम प्रतीत होती है । यद्यपि इस विधि का आध्यात्मिक मूल्य सदैव अनुसरणीय रहेगा किन्तु पाश्चात्य संस्कृति में पल रहे जन-मानस के लिए यह सभ्यताहीन एवं लोकविरुद्ध प्रवृत्ति हो सकती है। इसी के साथ आज की सरकार इन तथ्यों को महत्व दें, यह जरूरी नहीं है । इसी अनुपात में यदि अग्निसंस्कार की मूल्यवत्ता पर विचार किया जाये तो तत्त्वतः जीव हिंसा, पर्यावरण अशुद्धता आदि के कारण यह प्रक्रिया भी अपेक्षाकृत लाभप्रद प्रतीत नहीं होती है। इसके स्थान पर वर्तमान प्रचलित विद्युत उपकरणों द्वारा यह क्रिया की जाये तो ज्यादा उचित होगा। अध्यात्मवेत्ताओं के लिए यह विचारणीय है। सन्दर्भ-सूची 1. भिक्खू या राओ वा वियाले वा आहच्च वीसुंभेज्जा, तं च सरीरगं केइ वेयावच्चकरे भिक्खू इच्छेज्जा एगंते बहुफासुए पएसे परिट्ठवेत्तए । अत्थि य इत्थ केइ .... तत्थेव उवनिक्खिवियव्वे सिया । बृहत्कल्पसूत्र, संपा. मधुकरमुनि, 4/29 2. गामाणुगामं दूइज्जमाणे भिक्खू य आहच्च वीसुंभेज्जा, तं च सरीरगं केइ

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